Sun-Temple-Baanner

मेवाड़ का शेर: महाराणा सांगा की शौर्य और साहस गाथा


Post Published by


Post Published on


Search Your Query


Explore Content


Reach Us


Drop a Mail

hello@sarjak.org

Donate Us


Help us to enrich more with just a Cup of Coffee

Be a Sarjak


मेवाड़ का शेर: महाराणा सांगा की शौर्य और साहस गाथा


मेवाड़ का शेर: महाराणा सांगा की गाथा

राजस्थान की शुष्क रेत में, जहाँ सूरज की तपिश निरंतर बढ़ती रहती है और हवाएँ वीरता की कहानियाँ सुनाती रहती हैं, उसी राजस्थान की भूमि पर एक योद्धा का उदय हुआ जिसका नाम समय के गलियारों में अनंत काल तक गूंजता रहेगा – वह नाम है मेवाड़ी राणा यानी महाराणा सांगा, या संग्राम सिंह प्रथम, मेवाड़ के अदम्य शासक जिन्हें महाराणा हिन्दूपति भी कहा गया। सिसोदिया राजवंश में उनका जन्म हुआ, एक ऐसा वंश जो गौरव और सैन्य परंपरा में डूबा हुआ था, महाराणा सांगा पुरुषों के बीच एक महापुरुष, विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक और खंडित राजपूत वंशों को एकजुट करने वाले एक सेना नायक के रूप में प्रचलित बन गए। उनका जीवन साहस, बलिदान और अथक दृढ़ संकल्प की एक तान थी, जो खून और गौरव के धागों से बुनी गई थी। यह एक ऐसे राजा की कहानी है जिसने साम्राज्यों को चुनौती दी, सौ युद्धों के निशान सहे और भारतीय इतिहास के गौरवशाली इतिहासी दस्तावेजो और इतिहासकारों के अंतरमन पर एक अमिट छाप छोड़ी।

सांगा – संघर्ष के बीच जन्मा सितारा

वर्ष 1482 था, हालांकि इतिहासकारों के बीच सटीक तिथि के बारे में कुछ बहस आज भी छिड़ी हुई है। मेवाड़ के हृदय स्थल चित्तौड़ के किले में, राणा रायमल और उनकी रानी रतन कुंवर के घर एक बच्चे का जन्म हुआ, जो हलवाड़ के झाला वंश की राजकुमारी थी। उन्होंने उसका नाम संग्राम सिंह रखा, एक ऐसा नाम जो भविष्यसूचक साबित हुआ- “संग्राम”, जिसका अर्थ है युद्ध, जो आगे जाकर उस नवजात बालक की नियती और उसके भाग्य को परिभाषित करेगा। कुंभलगढ़ शिलालेख में उल्लेखित ज्योतिषीय चार्ट ने उनके जन्म को शुभ संकेतों के साथ घोषित किया, जो महानता का एक दिव्य वचन था। फिर भी, जिस दुनिया में उनका जन्म हुआ वह शांतिपूर्ण तो अंश भर नहीं थी। क्योंकि मेवाड़ उस वक्त का एक गौरवशाली राजपूत राज्य था, जो निरंतर आक्रांता हमलावरों से और मुस्लिम सल्तनतों की लहरों के खिलाफ एक ढाल के रूप में खड़ा था, उस वक्त आक्रांता के राज्य विस्तार निरंतर उत्तर भारत में फैल रहे थे – उसी समयकाल में दिल्ली, गुजरात और मालवा, प्रत्येक प्रभुत्व के लिए होड़ में लगे हुए थे।

महाराणा संग्राम सिंह राणा रायमल सिंह का तीसरा पुत्र था, एक ऐसी स्थिति जिसने उसे अपने बड़े भाइयों, पृथ्वीराज और जगमल की छाया में रखा। कोई भी राज्य राजनीती और षड्यंत्र से अछूता कैसे हो शकता है? वही हाल यहाँ भी था उस वक्त सिसोदिया दरबार में षडयंत्रों का बोलबाला था और उत्तराधिकार का सवाल भी बड़ा था। युवा संग्राम इस खदबदाते तनाव के बीच बड़े हुए, उनका बचपन तलवारों की टक्कर और शाही कर्तव्य के बोझ से निरंतर आकार ले रहा था। कम उम्र से ही, उन्होंने युद्ध के लिए योग्यता अपनी दिखाई, उनके हाथ तलवार को उसी तरह से पकड़ते थे जैसे कोई कवि अपनी कलम को पकड़ता है। मेवाड़ की रेगिस्तानी रेत उनकी शिक्षा का मैदान बन गई और उनके दादा राणा कुंभा की कहानियाँ उनकी आत्मा में शौर्य और साहस की आग को निरंतर जलाती रहीं। महाराणा कुम्भा जो एक अजेय योद्धा और राजा जिन्होंने मेवाड़ की सुरक्षा को मजबूत भी किया और इसकी संस्कृति को समृद्ध भी किया

लेकिन किस्मत ने भी संग्राम सिंह का साथ नहीं दिया। अपने भाइयों के साथ हुए आंतरिक झड़प में, महत्वाकांक्षा और प्रतिद्वंद्विता से पैदा हुए संघर्ष के चक्कर में राणा संग्राम ने अपनी एक आँख खो दी। शायद यह घाव उन अनगिनत घावों का आगाज़ मात्र था जो उन्हें आगे चलकर सहने होंगे, फिर भी उस घांव ने उनकी आत्मा को कमजोर नहीं किया। लेकिन उल्टा इस घांव ने उन्हें दृढ़ संकल्पित किया, उनके संकल्प को उतना ही दृढ़ बनाया जितना कि उनकी मातृभूमि को पालने वाली अरावली की पहाड़ियाँ थी। 1508 में जब राणा रायमल ने अपनी अंतिम सांस ली, तब मेवाड़ की गद्दी खून और तलवार से लड़ी जाने वाली एक पुरस्कार की पुष्ठभूमि बन गई। सबसे बड़े, पृथ्वीराज ने इसे हासिल करने की कोशिश की, लेकिन विश्वासघात के कारण उनका शासन छोटा हो गया – उन्हें उनके अपने ही साले ने जहर दे दिया। जगमाल भी महत्वाकांक्षा की छाया में गिर गया। इस अराजकता के बीच, संग्राम सिंह न केवल एक जीवित व्यक्ति के रूप में, बल्कि भाग्य द्वारा अभिषिक्त राजा के रूप में उभर कर आयें। 1509 में, वे राणा सांगा के रूप में सिंहासन पर बैठे। यही से उनकी राणा सांगा वाली यात्रा का प्रारंभ हुआ, मेवाड़ के घराने के 50वें संरक्षक के रूप में। मेवाड़ और राणा सांगा अब शायद इतिहास की नींव में अपना नाम दर्ज कराने के लिए तैयार थे, लेकिन यह संघर्ष रक्तरंजित इतिहास का साक्ष्य रहा।

एक योद्धा से चलकर महान राजा का निर्माण

राणा सांगा का शासन उथल-पुथल के दौर में शुरू हुआ था। उसी वक्त जब लोदी वंश के अधीन दिल्ली सल्तनत ने उत्तरी भारत पर एक लंबी छाया को डाला हुआ था। पश्चिम में गुजरात सल्तनत भी बेचैन हो गई, जबकि दक्षिण में मालवा सल्तनत आंतरिक कलह से सुलग रही थी। मेवाड़, हालांकि आत्मा में समृद्ध था, लेकिन चारो और फैलती राजकीय आकांक्षा और विस्तारवादी आक्रांता की विनाशकारी मानसिकता से भरे दुश्मनों से घिरा हुआ था, परिणाम स्वरूप मेवाड़ की सीमाएँ लगातार युद्ध का मैदान बनी हुई थीं। लेकिन फिर भी राणा के लिए यह अधिक कठिन नहीं रहा, क्योंकि राणा सांगा भी कोई साधारण शासक नहीं थे। उनके पास एक ऐसा दृष्टिकोण था जो केवल अस्तित्व टिकाए रखने से परे था – उन्होंने भी महान आचार्य चाणक्य की तरह ही एक एकीकृत राजपूताना का सपना देखा, एक ऐसा गठबंधन जो राजपूतों की भूमि को अपने अधीन करने की कोशिश करने वाले आक्रमणकारियों को पीछे हटा सके या उनकी जड़ो को उखाड़ शके।

उनकी शारीरिक उपस्थिति भी उनकी महत्वाकांक्षा जितनी ही प्रभावशाली थी। लंबे और चौड़े कंधों वाले, राणा सांगा ने अपने शुरुआती वर्षों में भी युद्ध के निशान दिखाए थे – उनकी एक-आंख वाली निगाह संदेह को भेदती थी, उनकी आवाज़ एक वज्रपात की तरह थी जो लोगों को उनके पक्ष में एकजुट करती थी। किंवदंतियाँ उनके शरीर को युद्ध के नक्शे के रूप में बताती हैं, जो ब्लेड और तीरों से जख्मी है, फिर भी अखंड और अजेय है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में सौ से ज़्यादा लड़ाइयाँ लड़ीं, सो ही या अधिक गिनती के संदर्भ में यह संख्या जो संभवतः अतिशयोक्तिपूर्ण है, लेकिन उनके अभियानों की अथक प्रकृति को रेखांकित करती है। युद्ध में उनका बायाँ हाथ कट गया, एक पैर तीर से अपंग हो गया, और फिर भी वे युद्ध में घोड़े पर सवार होकर निरंतर लड़ते चले गए, जो राजपूत सम्मान की संहिता का एक जीवंत प्रमाण है: अंतिम साँस तक लड़ना, और हार मानने के बजाय मरना।

राणा के रूप में सांगा के शुरुआती साल एकीकरण द्वारा चिह्नित किये जाते है। उन्होंने बड़े उद्देश्य और एकीकरण की सोच के चलते आंतरिक असंतोष को दबा दिया और कूटनीति के माध्यम से और जब भी आवश्यक हो, तलवार के माध्यम से छोटे राजपूत प्रमुखों के साथ गठबंधन भी किया। रानी कर्णावती से उनका विवाह ने अन्य कुलों के साथ उनके संबंधों को मजबूत किया। रानी कर्णावती एक असाधारण शक्ति वाली महिला थी, जिन्होंने बाद में उनकी अनुपस्थिति में मेवाड़ का नेतृत्व किया, साथ में उन्होंने अपने बेटों को पाला जो उनकी विरासत को आगे ले जा शके। उनकी संतानों में रतन सिंह द्वितीय, विक्रमादित्य और उदय सिंह द्वितीय (जो महाराणा प्रताप के पिता थे) सामिल है। लेकिन सांगा की नज़र जल्द ही बाहर की ओर मुड़ गई, उन दुश्मनों पर जिन्होंने उनके राज्य और उनके लोगों के सम्मान को ख़तरे में डाल दिया था।

विजय की गर्जना

राणा सांगा का सैन्य जीवन विजयों का एक निरंतर प्रवाह था, प्रत्येक जीत मेवाड़ के साम्राज्य संगीत में एक संगीत के लय के स्वरूप में थी। उनका पहला बड़ा अभियान दिल्ली सल्तनत के खिलाफ था, जिस पर उस वक्त इब्राहिम लोदी का शासन था, एक ऐसा शासक जिसकी महत्वाकांक्षा उसकी क्षमता से कहीं ज़्यादा थी। 1517 में, दोनों सेनाएँ वर्तमान राजस्थान में हरावती की सीमाओं के पास खतोली की लड़ाई में भिड़ गईं। सांगा, राजपूत योद्धाओं के एक गठबंधन का नेतृत्व करते हुए, लोदी की अफ़गान सेना का इतनी क्रूरता से सामना किया कि उसके दुश्मन दंग रह गए। युद्ध क्रूर था – सांगा ने तलवार के वार से अपना बायाँ हाथ खो दिया और एक तीर से लंगड़ा हो गए – लेकिन फिर भी दुसरे दिन उनका हौसला अटूट और अतुल्य रहा। राजपूत विजयी हुए, उन्होंने लोदी राजकुमार को पकड़ लिया और इब्राहिम लोदी को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। यह विजय एक सैन्य जीत से कहीं बढ़कर थी; यह एक घोषणा थी कि मेवाड़ दिल्ली के शासन के आगे नहीं झुकेगा।

अगले वर्ष, 1518-19 में महाराणा सांगा ने फिर से धौलपुर में लोदी से मुलाकात की। अपनी पिछली हार से आहत सुल्तान ने राजपूतों को कुचलने की भरपूर कोशिश की। लेकिन सांगा की सामरिक प्रतिभा उस युद्ध में भी अधिक उभर कर चमक उठी। उन्होंने लोदी की सेना को एकबार फिर मात दी, सटीकता और गति के साथ हमला किया और एक बार फिर सुल्तान को युद्ध छोडकर भागने पर मजबूर कर दिया। इन जीतों ने मेवाड़ के प्रभाव को बढ़ाया, और मेवाड़ी राज्य सीमाओं को लोदी की शक्ति के केंद्र आगरा के करीब तक लाकर खड़ा कर दिया। दो दो बार हार से अपमानित इब्राहिम लोदी कभी भी अपनी प्रतिष्ठा वापस नहीं पा सका, सांगा के अथक और निरंतर हमलों से उसका शासन कमजोर हो गया।

दक्षिण में, महमूद खिलजी के अधीन मालवा सल्तनत ने एक और चुनौती पेश की। मालवा असंतोष से त्रस्त भूमि थी, इसके राजपूत वजीर मेदिनी राय सुल्तान के साथ संघर्ष में उलझे हुए थे। जब राय ने सांगा की सहायता मांगी, तो राणा ने एक अवसर देखा। 1519 में, गागरोन की लड़ाई में, सांगा ने खिलजी की सेना के खिलाफ अपनी सेना का नेतृत्व किया। संघर्ष भयंकर था, राजपूतों की घुड़सवार सेना धूल में तूफान की तरह आगे बढ़ रही थी। खिलजी को पराजित कर बंदी बना लिया गया, लेकिन सांगा की वीरता-जो उनके चरित्र की पहचान थी वह निरंतर चमकती रही। उन्होंने बंदी सुल्तान के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया, बंधकों को सुरक्षित करने के बाद उसे रिहा कर दिया और मालवा पर शासन करने के लिए मेदिनी राय को अपना जागीरदार बना लिया। इस जीत ने मालवा के अधिकांश हिस्से को मेवाड़ के अधिकार क्षेत्र में मिला लिया, जो सांगा की रणनीतिक सूझबूझ का ही जिवंत प्रमाण था। उसी वर्ष के आसपास गुजरात ने भी मेवाड़ी राणा सांगा की तलवार का वजन महसूस किया। 1520 में, इडर के उत्तराधिकार को लेकर विवाद ने उन्हें गुजरात सल्तनत के साथ संघर्ष में धकेल दिया। मारवाड़ के राव गंगा राठौर, वागड़ के रावल उदय सिंह और मेड़ता के राव वीरम देव जैसे सहयोगियों द्वारा समर्थित 40,000 राजपूतों की सेना के साथ, सांगा ने पश्चिम की ओर कूच किया। उन्होंने निज़ाम खान की सेनाओं को खदेड़ दिया, अहमदाबाद के 20 मील के भीतर उनका पीछा करते हुए उनकी बढ़त को रोक दिया। गुजरात के शाही खजाने को लूटा गया, जिन मंदिरो को तोड़कर मस्जिदे बनायीं गई उन जगहों को फिर से मंदिर निर्माण के लिए सोपा गया। सनातन धर्म के प्रति आस्था और हिंदू संप्रभुता का एक और साहसिक दावा बनकर यह जित उभरी। इसी के साथ अब उत्तरी गुजरात मेवाड़ के अधीन आ गया, एक विश्वसनीय जागीरदार द्वारा शासित, जिसने सांगा के साम्राज्य का और अधिक विस्तार किया।

ये जो निरंतर विजय राणा सांगा ने हासिल की यह केवल आक्रामकता के कार्य नहीं थे; वे एक पूर्ण राजपुताना साम्राज्य के सपने की पूर्ति थे। सांगा ने राजपूत आधिपत्य को बहाल करने, प्रतिहार साम्राज्य के पतन के बाद से सदियों से मुस्लिम आक्रमणों में खोई हुई भूमि को पुनः प्राप्त करने का प्रयास निरंतर और जीवन पर्यंत किया। अगर देखा जाये तो यह वह दौर था जब भारत के महान सम्राट और दिल्ली के अधिपति पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली बार, राजपूत सेनाए एक ही झंडे के नीचे एकजुट हुए, उनके टूटे हुए कबीले राणा सांगा की दृढ़ इच्छाशक्ति द्वारा एक शक्तिशाली गठबंधन में बदल गए। मुगल इतिहासकार अब्द अल-कादिर बदायुनी ने बाद में उन्हें सभी राजपूतों में सबसे बहादुर, पौराणिक राय पिथौरा के समकक्ष कहा। यहां तक ​​कि पहले मुगल सम्राट बाबर ने भी उन्हें अपने समय का “सबसे महान भारतीय शासक” बताया, जो भविष्य के दुश्मन की ओर से एक अनिच्छापूर्ण श्रद्धांजलि थी।

साहस का टकराव: खानवा की लड़ाई

वर्ष 1526 में मेवाड़ी क्षितिज पर एक नई छाया आई – मध्य एशिया के एक तैमूर राजकुमार बाबर ने भारत पर आक्रमण कर दिया। 21 अप्रैल को हुई पानीपत की पहली लड़ाई में उसने तोपखाने और सामरिक प्रतिभा के संयोजन से इब्राहिम लोदी को हराया, लोदी वंश का अंत किया और दिल्ली पर कब्ज़ा जमा लिया। उस वक्त महाराणा सांगा ने इन सभी घटनाओं को सतर्क निगाहों से देखा। क्योंकि अब तक उन्होंने गुजरात और मालवा की महत्त्वकांक्षी युद्ध अभिलाषाओ को कुचल दिया था, दिल्ली के सुल्तान को नीचा दिखाया था और अब वह उत्तरी भारत में सबसे शक्तिशाली हिंदू राजा के रूप में प्रस्थापित महाराणा हिन्दूपति बन चुके थे। उनकी दिल्ली के रूप में अखंड भारत पर शासन की महत्वाकांक्षा भी बढ़ती गई- उन्होंने भी उसी वक्त दिल्ली पर कब्ज़ा करने और राजपूत झंडे के नीचे भारत को एकजुट करने का सपना देखा। उनका मानना ​​था कि बाबर एक क्षणिक विजेता था, जो जल्द ही अपने मध्य एशियाई गढ़ों में वापस चला जाएगा। यह एक गलत अनुमान साबित हुआ जो उनकी विरासत को परिभाषित करेगा।

महाराणा सांगा ने अपनी सेना को इकट्ठा किया, जिसमें राजस्थान भर के कुलों से 100,000 राजपूत योद्धा शामिल थे। उन्होंने राजा शिलादित्य (सिलहादी) नामक एक दूत को बाबर को भारत से वापस जाने की इच्छा को संदेश स्वरूप भेजा। लेकिन तैमूर और चंगेज खान के वंशज बाबर का वहां से जाने का कोई इरादा अब रहा नहीं था। उसने भी महाराणा सांगा में अपने लिए एक योग्य प्रतिद्वंद्वी देखा, एक ऐसा राजा जिसकी शक्ति उसके नवजात साम्राज्य के लिए खतरा थी। यही स्थितियाँ एक ऐसे टकराव के लिए मंच तैयार करने का माध्यम बनी जो भारत के भाग्य को नया आकार देने वाला था। जिसकी पृष्ठभूमि बनी खानवा और खानवा की लड़ाई, जो 17 मार्च, 1527 को वर्तमान भरतपुर के खानवा गांव के पास लड़ी गई थी।

यह लड़ाई दिग्गजों की टक्कर थी, राजपूत वीरता और मुगल नवाचार की टक्कर थी। महाराणा सांगा की सेना, विशाल और अनुशासित, पारंपरिक युद्ध-कौशल-घुड़सवार सेना, तलवार और भाले पर निर्भर थी। बाबर, एक छोटी सेना के साथ, कुछ नया लाया: तोपें और माचिस की बंदूक, बदलती दुनिया के अग्रदूत। राजपूतों ने पहले हमला किया, उनके शुरुआती हमले ने मुगल लाइनों को तोड़ दिया, जिससे बाबर की सेना बिखर गई। जीत हाथ में लग रही थी। लेकिन विश्वासघात, राजपूत इतिहास का वह पुराना भूत, अपना सिर उठा चुका था। 30,000 सैनिकों की टुकड़ी की कमान संभाल रहे सिलहदी ने एक महत्वपूर्ण क्षण में बाबर की तरफ़ से लड़ाई लड़ी, जिससे महाराणा सांगा की सेना में फूट पड़ गई। एकबार फिर अंदर पल रहे शत्रु की और से हमला हुआ।

इसी विश्वासघात के कारण युद्ध और उसका निर्णायक क्षण पलट गया। बाबर की तोपें गरजती हुई राजपूतों की कतारों को चीरती हुई निकल गईं, जबकि उनके तीरंदाजों ने किलेबंद ठिकानों से मौत की बारिश की। सांगा सबसे आगे लड़े, उनकी एक आँख दुश्मन पर टिकी हुई थी, उनका अपंग शरीर विद्रोह का बवंडर बना हुआ था। लेकिन बाधाएँ तब अधिक दुर्गम बन चुकी थीं, जब सेना के भीतर से विश्वासघात ने सर उठाया था। घायल और बेहोश, उन्हें उनके वफ़ादार जागीरदारों- पृथ्वीराज सिंह प्रथम कछवाहा, उनके बहनोई और मारवाड़ के मालदेव राठौर ने मैदान से उठा लिया। राजपूत सेना ने अपने राजा को मरा हुआ मानकर भागना शुरू कर दिया। इसी के चलते बाबर विजयी माना गया, उसीके साथ उत्तरी भारत पर बाबर जैसे आक्रांता की पकड़ मज़बूत हुई।

अंतिम लड़ाई और खून में गढ़ी विरासत

खानवा के युद्ध में मिले विश्वासघात के बाद राणा सांगा के मानसिक और शारीरिक घाव गंभीर थे, फिर भी उनकी आत्मा ने हार मानने से इनकार कर दिया। युद्ध के बाद दौसा के पास बसवा में ले जाए जाने पर उन्हें होश आया और खानवा की हार के बारे में उन्हें पता चला। एक कमतर व्यक्ति के लिए यह हार और गंभीर स्थिति, शायद शासन की इच्छा का अंत हो सकता था। लेकिन महाराणा सांगा शुरू से ही कोई साधारण व्यक्ति या राजा नहीं था। उन्होंने उसी क्षण यह शपथ ली थी कि जब तक वह बाबर को हरा नहीं देते और दिल्ली को वापस छीन नहीं ले लेते, तब तक वह चित्तौड़ वापस नहीं लौटेगे। यही से वह लोकवायका प्रचलित हुई की राणा सांगा का राज्य चित्तोड़ में था लेकिन उनका संघर्ष खानवा के युद्ध भूमि पर चलता रहा। उन्होंने वही से अपनी सेना का पुनर्निर्माण शुरू किया, खानवा में हार के बावजूद उनका संकल्प क्षणिक भी डगमगाया नहीं था। राजपूत एक बार फिर महाराणा सांगा की वीरता और दृढ इच्छाशक्ति के साथ एकजुट हुए, उनका अपने राणा पर अटूट विश्वास था।

लेकिन भाग्य ने कुछ और ही सोच रखा था। 30 जनवरी, 1528 को कालपी शहर में – या शायद 20 मई को, जैसा कि कुछ लोग बताते हैं – राणा सांगा ने अपनी अंतिम सांस ली। इसका कारण रहस्य में छिपा हुआ है। उनके अपने सरदारों द्वारा दिए गए जहर की कुछ फुसफुसाहट, जिन्हें डर था कि युद्ध के लिए उनका अथक प्रयास उन सभी को बर्बाद कर देगा। दूसरों का कहना है कि दशकों की लड़ाई से क्षत-विक्षत उनका शरीर बस जवाब दे गया। सच्चाई जो भी हो, उनकी मृत्यु ने एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। उनके द्वारा छोड़े गए सत्ता के शून्य को मारवाड़ के राव मालदेव राठौर ने भरा, लेकिन कोई भी सांगा की दूरदर्शिता या वीरता से मेल नहीं खा सका।

अब उत्तर भारत के निर्विवाद स्वामी बाबर ने अपनी राजधानी काबुल से आगरा स्थानांतरित कर दी, जिससे मुगल साम्राज्य की नींव मजबूत हुई। आंद्रे विंक जैसे इतिहासकारों का मानना ​​है कि खानवा पानीपत से अधिक निर्णायक था, जिसने पुनर्जीवित राजपूत शक्तियों को कुचल दिया और मुगल प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त किया। फिर भी, सांगा की हार उनकी कहानी का अंत नहीं थी। उनकी विरासत उनके वंशजों के प्रतिरोध में जीवित रही, विशेष रूप से उनके पोते महाराणा प्रताप, जिन्होंने अकबर के खिलाफ विद्रोह की मशाल उठाई।

सांगा – सिंह की चिरस्थायी दहाड़

राणा सांगा एक योद्धा से कहीं बढ़कर थे, वे शौर्य का एक जिवंत प्रतीक थे। उनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी शक्ति के शिखर पर पहुंचा, इसकी सीमाएं वर्तमान राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश तक फैली हुई थीं। उन्होंने सदियों के विभाजन के बाद राजपूतों को एकजुट किया, जो पृथ्वीराज चौहान के बाद से बेमिसाल उपलब्धि मानी जाती थी। उनकी वीरता – महमूद खिलजी के राज्य को बहाल करना, बंदियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करना – धर्म के राजपूत लोकाचार को दर्शाता है। कला और संस्कृति के उनके संरक्षण ने मेवाड़ की विरासत को समृद्ध किया, जो उनके सैन्य कारनामों के विपरीत था।

शारीरिक रूप से, वे एक चमत्कार थे। एक आँख, एक हाथ और एक पैर खोने के बावजूद, उन्होंने आगे बढ़कर नेतृत्व किया, उनकी उपस्थिति एक रैली का नारा थी। किंवदंतियों का दावा है कि उन्होंने 80 घाव सहे, एक संख्या जो शायद अलंकृत होने के बावजूद, उनके धीरज को दर्शाती है। बाबर की तोपों ने भले ही हिंदू साम्राज्य के उसके सपने को खत्म कर दिया हो, लेकिन वे उसके प्रभाव को मिटा नहीं सके। आधुनिक इतिहासकारों का मानना ​​है कि उन तोपों के बिना, सांगा भारत के इतिहास को फिर से लिख सकते थे, जिससे मुगलों का ज्वार रुक जाता।

लोकप्रिय संस्कृति में, सांगा की कहानी बार-बार सुनाई गई है – दूरदर्शन के भारत एक खोज में, जहाँ रवि झनकल ने उन्हें जीवंत किया, और भारत का वीर पुत्र – महाराणा प्रताप में, जहाँ आरव चौधरी ने उनकी भव्यता को चित्रित किया। फिर भी, कोई भी स्क्रीन उनकी भावना को पूरी तरह से नहीं दिखा सकती। वह मेवाड़ का वह शेर था और एक सशक्त राजा जो तूफान के खिलाफ भी बेख़ौफ़ दहाड़ता था, जिसके खून ने शौर्य, साहस और विक्रमी विजय से सजी मातृभूमि की रेत को लाल कर दिया था। महाराणा सांगा वीरता की वह मिशाल हे जिनका नाम आज भी वीरता को संजोने वालों के दिलों को झकझोर देता है।

जब चित्तौड़ की ऊबड़-खाबड़ प्राचीर पर सूरज डूबता है, तो कोई भी व्यक्ति उसके युद्ध के नारे की प्रतिध्वनि सुन सकता है, यह याद दिलाता है कि कुछ किंवदंतियाँ कभी फीकी नहीं पड़तीं। महाराणा सांगा केवल एक शासक नहीं थे – वे प्रकृति की एक शक्ति थे, एक योद्धा जिनकी उत्कृष्टता भारतीय इतिहास में रेगिस्तान के सूरज की तरह चमकती है। उनकी कहानी गौरव की गाथा है, राजपूताना की अडिग आत्मा का गान है, तथा नियति के सम्मुख साहस की स्थायी शक्ति का प्रमाण है।

सुलतान सिंह

[ इतिहास के कुछ पन्ने, इन्टरनेट पर उपलब्ध ऐतिहासिक लेखन, राजस्थान में रचे गए शौर्य के किस्सों की गूंज से संजोया हुआ लेख. कोई भी लेखन सतप्रतिशत नहीं होता लेकिन गलतियाँ हो तो सुधार के लिए अवश्य सम्पर्क करे। आभार। ]

DISCLAIMER


All the rights of Published Content is fully reserved by the respective Owner / Writer. Sarjak.org never taking the ownership of the content, we are just a Platform to publish content to serve the readers. Any Dispute or Query related Content on Platform, Do inform Us at bellow links First. We will Respect, take care of it and Try to Solve it Out as fast as Possible.

Please Do Not Copy the Content, Without Prior Written Permission of there Respective Owner.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Copying, distributing, or sharing our content without permission is strictly prohibited. All content on this website is sole property of Respective owners. If you would like to use any of our content, please contact us for permission. Thank you for respecting our work.