आत्मा की सात अवस्था
हमारे वेदो और पुराणों में निर्देशित तथ्यों के अनुसार देखा जाए तो मनुष्य के जीवन मे जन्म और मृत्यु के बीच और फिर एक बार इसी तरह मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी आती हैं, जो की अनंत और निरंतर कालचक्र की गति से सामंजस्य के साथ चलती रहती हैं। उन सबसे महत्वपूर्ण मानी जाने वाली सिर्फ तीन ही अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। ओर हमारे शास्त्रो के आधार पर समजा जाए तो इन महत्वपूर्ण तीन अवस्थाओं में से सकुशल बाहर निकलने की विधि का नाम ही हिन्दू(सनातन) धर्म है।
हमारे चलते जीवन मे यह क्रम समयचक्र ओर काल चक्र के साथ निरंतर चलता है। यह क्रम कुछ इस प्रकार से चलता है
सुबह जागने वाला व्यक्ति जब पलंग पर सोता है, तो संबसे पहले तो स्वप्निक अवस्था में चला जाता है। फिर जब नींद गहरी होती जाती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में चला जाता है। इसी अवस्था के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। क्योकि कई बार व्यक्ति एक ही समय में ऊपर बताई गई तीनों अवस्था में भी रह शकता है। कुछ लोग होते है जो कि जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं, अर्थात की वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
ओर जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष, मुक्ति और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर कायम रहता है। उक्त तीन अवस्थाओ में से क्रमश: बाहर निकला जाता है। ओर इस के लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में भी रहना पड़ता है, तब हासिल होती बची हुई चार अलौकीक अवस्थाएं जो दिए गए नामो से जानी जाती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ब्राह्मी चेतना।
(1) जागृत अवस्था :-
अगर इस समय आप पूरे होशमें यह आर्टिकल पढ़ रहे है, तो यह बात जाहिर है कि आप जागृत अवस्था में ही है…? क्योकि ठीक तरह से वर्तमान में जागृत रहना ही, चेतना की जागृत अवस्था का स्वरूप है। लेकिन फिर भी अधिकतर लोग ठीक तरह से वर्तमान में भी नहीं रहते है। वो अपने ही बनाये हुए काल्पनिक विश्व की फेंटेसीओ में खोए या फिर यू कहो कि उलझे उलझे से रहते है। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो एक प्रकार से बिना सोए हुए भी स्वप्न की अवस्था है।
बहरहाल जब हम भविष्य से जुड़ी हुई किसी प्रकार की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो उस वक्त हम वर्तमान में न रहकर कल्पना विश्व के लोक में चले जाते हैं। लेकिन हमारी कल्पनाओ से भरा पड़ा यह लोक, यथार्थ नहीं बल्कि एक प्रकार से स्वप्न-लोक ही होता है। जब कभी भी हम अपने अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम अपने वर्तमान विश्व से स्मृति-लोक में चले जाते हैं। जब कि स्मृति लोक भी एक दूसरे ही प्रकार का स्वप्न-लोक कहा जा शकता है।
आज के समय मे ऐसे करोड़ो लोग है जो कि वास्तविकता नही स्वीकार करते, ओर अपने स्वप्न लोक में जीकर ही मर जाते हैं। आम तौर पर देखा जाए तो वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ १० प्रतिशत हिस्सा ही मुश्किल से जी पाते हैं, जबकि वर्तमान में जीते रहना ही हमारे जीवन चेतना की जागृत अवस्था है।
(2) स्वप्न अवस्था :-
जैसे कि हम आगे भी देख चुके है उसी तरह जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को ही स्वप्न अवस्था कहते हैं। क्योकि निंद्राधीन होना स्वप्न अवस्था नही है, निद्रा में डूब जाना तो पूर्ण सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। जबकि स्वप्न अर्ध जाग्रत अवस्था की अनुभूति है। अपने द्वारा देखे गए स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा सा और थोड़ा सोया सा रहता है। इसमें आने वाले अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घोलमेल रहता है, इसलिए व्यक्ति कब ओर कैसे, किस प्रकार के स्वप्न देख ले उसका कोई भरोसा या पूर्व निर्धारण मान्य नहीं। स्वप्न को निर्धारित या आयोजन बध्ध नही किया जा शकता है।
हमारे स्वप्न एक प्रकार से हमारे जीवन के वर्तमान अनुभवो के विचित्र पहलुओ को दर्शाते हैं। यह तो एक तरह से ऐसा है, कि पूरी फेक्टरी अपना काम तो करती रहे, लेकिन ना वहां कोई उजाला हो और ना कोई काम, मानो बिजली हो ही नही। यह ऐसा माहौल खड़ा करेगा मानो हमारी सांसे ही हमे डराने के लिए बड़ा शैतान बन शकती है। इन स्थितिओं में अगर रस्सी भी कंधे पर गिरेगी तो वह अहेसास जहरी साँप लिपटने से अलग नही होगा। साधारण से साधारण स्थितिया हमारे डर और विचारो को कहि अधिक डरावना ओर अलौकिक बना देंगी। वैसे तो हमारे स्वप्न भी दिनभर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित ही होते हैं। लेकिन रात में यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं। कई बार यह एक ऐसा संसार रच देते है जो सिर्फ हमारी कल्पना में ही वास्तविक लग शकता है, ओर डरावना या मझेदार भी।
(3) सुषुप्ति अवस्था :-
मौत, बेहोशी एक तरह से इन्हें भी सुषुप्त अवस्था कहा जा शकता है। क्योंकि वह गहरी नींद जहा सिर्फ शून्यवकाश होता है उसी को सुषुप्ति वाली अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में ही हमारी पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित पूर्ण चेतना यानी कि हम ओर हमारी आत्मा विश्राम करते हैं। ( पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा तथा पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु। )
पूर्ण सुषुप्ति की अवस्था हमारी चेतना की सम्पूर्णनिष्क्रिय अवस्था है। क्योकि इस अवस्था मे एक तरह से तो हम होते ही नही है। यह वो अवस्था है जहाँ पर हमें न तो स्वप्न आते है और न ही शरीर कोई कर्म करता है। यह अवस्था सुख ओर दुःख जैसे दोनो भौतिक अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में व्यक्ति को सामान्य रूप से किसी भी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो कोई क्रिया होती है, ओर न ही क्रिया की कोई संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और भी गहरी अवस्था में चले जाते हैं।
यह अवस्था व्यक्ति जीवन कि निष्क्रियता को परिभाषित करती है। जहा किसी भाव की कोई वास्तविकता मायने नही रखती।
(4) तुरीय अवस्था :-
तुरीय अवस्था प्रयास करने पर ही पायी जाती है। चेतना की उस चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था सबके पास नही होती लेकिन, व्यक्ति के प्रयासों से यह प्राप्त होती है। यह अवस्था अलौकिक है फिर भी चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह पूर्ण रूप से निर्गुण है, ओर निराकार है। इसमें न तो जागृति है, न ही स्वप्न का अहसास और न ही सुषुप्ति का कोई भाव। यह निर्विचार और अतीत एवम भविष्य की कालातीत कल्पनाओ से परे पूर्ण जागृति है।
यह नदी के उस साफ और शांत जल की तरह है, जिसका तल हमे स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। तृतीय का अर्थ है तीसरा ओर तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा पाने के लिए ही शायद इसे हम संख्या द्वारा संबोधित करते हैं। यह मनुष्य जीवन का कोरा पोर्ट्रेट है, पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है, जिसके ऊपर उस वक्त तक कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा। जब तके की व्यक्ति उस अवस्था को हासिल नही कर लेता है।
एक तरह से तो जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सारी चेतनाएं तुरीय अवस्था के पर्दे उस पर ही घटित होती हैं। जिस हाल में ओर जैसी स्थिति में वह घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू उन्ही प्रकार से हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह एक प्रकार से हमारे विचारो की आधार चेतना है। यहीं से शुरू होती है व्यक्ति की अपनी खुद की आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय अवस्था के इस पार संसार के दुःख है तो उस पार मोक्ष का अनंत ओर अद्वितीय आनंद होता है। बस, जरूरत है तो अपने प्रयास ओर आत्म बल द्वारा उस ओर छलांग लगाने की।
(5) तुरीयातीत अवस्था :-
जिस प्रकार अगर हम चौथी सीडी पा लेते है तब पांचवी सीडी खुद ब खुद हमारे सामने आ जाती है। उसी प्रकार से अगर व्यक्ति तुरीय अवस्था के पड़ाव को पार कर लेता है तो उसका पहला कदम ही तुरीयातीत अवस्था के अनुभव का होता है। लेकिन यह अवस्था तुरीय अवस्था का अनुभव हमारे अंदर स्थाई रूप में स्थापित हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी गहन मानी जाने वाली अवस्था को प्राप्त व्यक्ति, हमारे बीच इस संसार में योगी या योगस्थ कहा जाता है।
यह अवस्था एक रूप से अपने अंदर जलते सपने की जुनूनी सिद्दत ओर चाहत से हासिल होती है। वर्तमान संदर्भ में इसे उनस्टोपेबल स्थिति कहते है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। उल्टा वह व्यक्ति अपने कर्म को करके आनंद प्राप्त करता है। क्योकि सामान्यतः इस अवस्था में आने के बाद व्यक्ति को काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। आगर व्यक्तिने इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो वह व्यक्ति अपने जीवन में रहते हुए भी जीवन चक्र से मुक्त हो जाता है। क्योकि इस अवस्था में व्यक्ति को अब अपने स्थूल शरीर या इंद्रियों की ज्यादा आवश्यकता नहीं रहती। वह अब इनके बगैर भी सब कुछ बहोत आसानी से कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही शास्त्रो ओर पुराणो में सहज-समाधि भी कहते हैं। शायद योग और साधना भी इन्ही में से एक है।
(6) भगवत चेतना :-
तुरीयातीत की अवस्था में लंबे अंतराल तक रहते रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के ही प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार लंबे समय तक अनिश्चित कार्य को भी करते रहने से हम समय के साथ उसमे अपने आप महारथ पा लेते है कुछ इसी प्रकार निरंतर तुरीयातीत अवस्था मे रहने से भगवत चेतना सहज आ जाती है। भगवत चेतना का व्यक्ति के अंतर मन मे उदय के साथ ही जीवन मे बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और पूर्णतः निस्प्रयास हो जाता है।
व्यक्ति जब इस अवस्था को हासिल कर लेता है तो, उस व्यक्ति से संसार मे ऐसा कुछ भी छुपा नहीं रहता जो सृष्टि में अस्तित्व सहित है। भगवत चेतना में वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। उसे संसार का वास्तविक स्तय अंतिम बिंदु तक समझ आ जाता है। और सृष्टि का वास्तविक स्तय शून्य से शुरू ओर षशून्य पर ही खत्म हो जाता है। इस वास्तविकता को स्वीकार करने वाला वह व्यक्ति एक महान सिद्ध योगी की अवस्था धारण कर लेता है।
(7) ब्राह्मी चेतना :-
आत्मिक ओर जीवनी चेतना का वह बिंदु जहा व्यक्ति खुद को सीधा ईश्वरमय महसूस करता है या फिर वह ईश्वर से सीधा संपर्क में रहता है। भगवत चेतना के काफी कम अंतराल में ही रहने के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना को उदयित कर देता है, अर्थात अगर कमल के पुष्प के रूप में देखे तो कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना ही ब्राह्मी चेतना का उदय समजा जा शकता है। इस अवस्था के बाद में भक्त और भगवान का भेद पूर्ण रूप से मिट जाता है। इसके बाद अगर कुछ बचता है तो वह सिर्फ इतना कि अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि का अनुभव, अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।
इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है। यह वो समाधि की अवस्था है जिसे दूसरे शब्दों ने जीते-जी मोक्ष का द्वार माना जाता है।
कुछ वैज्ञानिक भी इस स्थिति को परिभाषित कर चुके है। उन्होंने इसे सुपर पावर कहा है, जहा सृष्टि उसके इशारो पर चलने को तैयार होती है फिर भी वह भाग्य बदलने की चेष्टा नही करता। इसी को मोक्ष कहते है क्योंकि सिर्फ यह वो अवस्था है जब सबकुछ हमारे बस मे होता है लेकिन हैम कुछ भी अपने बस में नही चाहते। हम सृष्टि को उसी हाल में चाहने लगते है जैसी की वह जाग्रत अवस्था मे हमे पसंद नही होती। लेकिन इन सभी अवस्थाओ को पा लेने के बाद हम उसे हस्ते हुए स्वीकार करने को राजी हो जाते है।
शायद यही चक्र हमे समयचक्र ओर कालचक्र की शून्यता में लीन अवस्था का अनुभव करवाता है। यह समझना मुश्किल है और पाना उससे भी ज्यादा मुश्किल। लेकिन यह कतई नामुनकिन नही है….
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