माँ के हौसलों में कहां कोई कमी दिखती है
ये वो मक्का है जहां काएनात ज़ुकती है
जब भी परेशां होता हूं तो लीपट जाता हूं
ये चौराहें पर तो हर मुसीबत रुकती है
ए ख़ुदा फ़िर कभी मांगूंगा जन्नत की दूआ
उनके पैरों तले मुजको जन्नत ही दिखतीं है
कीतनी ख़्वाहिश होंगी दफ़्न उसके दिल मैं
वो न चील्लाती है न तो क़भी चीख़ती है
वोह क्या लीखेंगे मेरी क़िस्मत क़ा हीसाब
मेरी माँ ख़ुद ही मेरी क़िस्मत लिखतीं है
~ हिमांशु मेकवान
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