दुनियादारी की भीड़मे तनहा हुँ, क्यूँ अपने वजूद में खो नहीं सकता?
मेरी आदत है मुस्कुराने की बस यही एक वजह में रो नहीं सकता.
दिनके उजालो से रातके सन्नाटे तक सिर्फ तेरा ही इंतज़ार है रहता,
अब तेरे बिना जीने की आदत सी हो गई है, फिर भी सो नहीं सकता.
मेरी ग़ज़लें तेरी लिखावट लगती है, कैसे में अपना नाम लिख दू?
में सरेआम ये इलजाम चोरी का खुद अपने सर पर ढो नहीं सकता.
देखता हुँ में जब भी आइना, मेरे बदले तेरा ही तेरा अश्क नजर आता है,
अब तो मान भी ले मेरी बात, तेरे बिना मेरा वजूद हो नहीं सकता.
छूटे तेरा साथ आये ये ख़याल भी, तो ये लगता है गुनाह किया हमने,
पर छोड़ दूँगा में साथ क़यामत के दिन, तेरा बुरा कर तो नहीं सकता.
~ रेखा पटेल ‘विनोदिनी’
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