Sun-Temple-Baanner

महाभारत : द्रोणाचार्य ओर कृपाचार्य


Post Published by


Post Published on


Search Your Query


Explore Content


Reach Us


Drop a Mail

hello@sarjak.org

Donate Us


Help us to enrich more with just a Cup of Coffee

Be a Sarjak


महाभारत : द्रोणाचार्य ओर कृपाचार्य


गौतम ऋषि के पुत्र का नाम शरद्वान था। ओर सबसे महत्व पूर्ण और आश्चर्यजनक बात यह की उनका जन्म भी बाणों के साथ ही हुआ था। इसका वर्णन हमे महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। जन्म से ही वे कुछ अलग व्यक्तित्व के धनी थे। किसी कारण वश उन्हें वेदाभ्यास में अन्य बालको की तुलना में जरा भी रुचि नहीं थी, लेकिन बाणों के साथ जन्म के कारण धनुर्विद्या से उन्हें अत्यधिक लगाव था। वे समय के साथ शस्त्र अभ्यास करते रहे और धनुर्विद्या में इतने निपुण बन गये, कि स्वयं देवराज इन्द्र भी अब उनसे भयभीत रहने लगे थे।

शायद यही कारण रहा कि देवराज इन्द्र ने उन्हें साधना से डिगाने के लिये नामपदी ( कही पर यह नाम जानपदी भी दर्शाया गया है ) नामक एक देवकन्या को उनके पास भेज दिया था। देव कन्या के रूप से मोहित शरद्वान संयमी होने के बावजूद कुछ देर के लिए अपनी साधना में अटक गए। उनके उस भावावही बहाव से धनुष बाण वही जमीन पर गिर गए। उन्होंने जल्द ही अपने आप को संभाल लिया। लेकिन, कुछ पल के लिए आये विकार से उसी वक्त उनका शुक्र पतन हो गया। इस भटकाव से बचने के लिए वे धनुष, बाण संभालते हुए तुरंत आश्रम छोड़कर वहा से चले गए। लेकिन मनमे आये क्षणिक विकार के दौरान उनका वीर्य सरकंडो पर गिरने से दो भागों में विभाजित हो गया। देवकन्या के सौन्दर्य के प्रति जन्मे उन विकार प्रभाव दो बालको का जन्म हुआ। उन बालको में से एक पुत्र था, तो एक पुत्री थी।

कुछ ही क्षणों में शरद्वान के वहाँ से चले जाने के बाद संयोग से शान्तनु वहा पर आ पहोचे। उन्होंने इन बच्चो को निसहाय अवस्था में वहा पर रोता देख कर उठाया और अपने साथ हस्तिनापुर ले गए। राज आज्ञा से वही उनका लालन पालन भी हुआ। समय आने पर उनका नामकरण संस्कार हुआ। बालक का नाम रखा गया कृप ओर बालिका का नाम कृपी। लेकिन जब इस विषय के बारे में शरद्वान को मालूम हुआ तो उन्होंने हस्तिनापुर आकर उन दोनों वच्चो के नाम, राशि और गोत्र समजाते हुए उन्हें शास्त्रो ओर धनुर्विद्या की शिक्षा भी शिखाई। कुछ ही दिनों में वेदोभ्यास ओर शास्त्रों में दोनों बालक निपूर्ण हो गए।

कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता शरद्वान के समान ही पारंगत हासिल कर चुके थे। ओर इसी सक्षमता को ध्यान में रखकर भीष्म पितामह ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और हस्तिनापुर राज्य में वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये। उन्हें राजगुरु भी माना गया।

कृपाचार्य के द्वारा पाण्डवों तथा कौरवों की प्रारंभिक शिक्षा समाप्त होने के पश्चात् अस्त्र-शस्त्रों की विशेष शिक्षा के लिये भीष्म पितामह ने उनके आगे के शिक्षा विधान को केंद्र में रखकर गुरु द्रोण नामक आचार्य को नियुक्त किया।

द्रोण की प्रारंभिक कहानी कुछ इस कदर थी। बाल्यावस्था में जिस समय द्रोण आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, तब द्रोण के साथ पांचाल नरेश प्रषत् राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। ओर अभ्यास काल के दौरान दोनों में प्रगाढ़ मैत्री भी हो गई थी।

उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप करने चले आये थे। एक बार द्रोण कुछ अभिलाषाएं लेकर उनके पास पहुँचे, और उनसे दान देने का अनुरोध किया। लेकिन इस पर परशुराम मुस्कुराकर बोले की, ‘ वत्स तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे दिया है। अब मेरे पास कोई धन संपत्ति नही बची है, केवल यह अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। ओर अगर तुम इन्हें चाहो तो दान में ले सकते हो।’

द्रोण भी यही चाहते थे अतः उन्होंने कहा की, ‘हे गुरुदेव आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों के साथ इनसे जुड़ी शिक्षा-दीक्षा भी देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।’ इस प्रकार से द्रोण ने परशुराम के शिष्य बन कर शिक्षा प्राप्त की। कुछ ही दिनों में द्रोण परशुराम की कृपा द्रष्टि के कारण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक प्रतापी पुत्र भी हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा ही रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। उन्हें निर्धनता से कोई समस्या नही थी, लेकिन अचानक एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा। किन्तु द्रोण अपनी निर्धनता के कारण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था भी न कर सके। अकस्मात् ही उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र पांचाल नरेश पुत्र द्रुपद का स्मरण हो आया, जो कि अब पांचाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, मित्र मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। लेकिन अब तुम एक राजा हो और में सिर्फ एक निर्धन ब्राह्मण। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है, और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर ही मैं तुम्हारे पास यहा तक आया हूँ।

लेकिन इस पर पांचाल नरेश द्रुपद ने अपनी पुरानी मित्रता को भूलाकर तथा स्वयं के नरेश होने के अहंकार वश में आकर द्रोण की बाल्यकाल की मित्रता को बिना सोचे ही ठुकरा दिया। इतना कम नही था तो उन्होंने द्रोण को यह कहकर अपमानित किया कि, ‘तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती…? क्योकि, मित्रता तो केवल समान वर्ग के लोगों में ही होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं।’

अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये और अब वो कृपाचार्य के घर गुप्त रूप से रहने लगे। उनही दिनों एक बार पांडव पुत्र युधिष्ठिर आदि अन्य राजकुमार गेंद खेल रहे थे, ओर उनकी गेंद अचानक से एक कुएँ में जा गिरी। जब उन्हें कोई मार्ग न मिला तब उधर से गुजरते हुये द्रोण से राजकुमारों ने गेंद को कुएँ से निकालने हेतु सहायता माँगी। द्रोण ने कहा, यदि तुम लोग मेरे तथा मेरे परिवार के लिये भोजन का प्रबन्ध करो तो मैं तुम्हारा गेंद निकाल दूँगा।

युधिष्ठिर बोले, देव यदि हमारे पितामह की अनुमति होगी तो आप सदा के लिये भोजन पा सकेंगे। द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मंत्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया।

इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के गुरु रुपमे उन्हें नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे हस्तिनापुर में द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

~ सुलतान सिंह ‘जीवन’

( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते ।)

DISCLAIMER


All the rights of Published Content is fully reserved by the respective Owner / Writer. Sarjak.org never taking the ownership of the content, we are just a Platform to publish content to serve the readers. Any Dispute or Query related Content on Platform, Do inform Us at bellow links First. We will Respect, take care of it and Try to Solve it Out as fast as Possible.

Please Do Not Copy the Content, Without Prior Written Permission of there Respective Owner.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Copying, distributing, or sharing our content without permission is strictly prohibited. All content on this website is sole property of Respective owners. If you would like to use any of our content, please contact us for permission. Thank you for respecting our work.