वेदव्यास की कृपा से विचित्रवीर्य की दोनो रानिया अंबालिका ओर अम्बिका पुत्र प्राप्त कर शकी। जिसमे धृतराष्ट्र कीर्तिमान तो थे लेकिन वे जन्म से वेदव्यास के कहे अनुसार अंध जन्मे थे। वही पाण्डु शसक्त ओर कीर्तिमान युवराज थे, लेकिन उन्हें पाण्डु रोग था। फिर भी हस्तिनापुर का राज्यभार संभालने के लिए किसी एक को तो राजा नियुक्त करना आवश्यक था।
धृतराष्ट्र आयु में पाण्डु से बड़े थे, लेकिन जन्म से ही वे अन्धे थे अतः उनकी जगह पर पाण्डु को हस्तिनापुर का नया राजा बनाया गया। सभा खंड में स्वयं धृतराष्ट्र ओर पूरे राज्य ने इस फैसले को स्वीकार भी कर लिया। इस कदर हस्तिनापुर का साम्राज्य पाण्डु के पक्ष में आया। धृतराष्ट्र भले ही सभा खंड में चुप रहे, और फेसले को सहमती प्रदान की। लेकिन बड़े होने के बावजूद राज न मिलने से सदा उन्हें अपनी नेत्रहीनता पर क्रोध आता रहा और अनजाने में ही अपने अनुज पाण्डु से द्वेषभावना भी होने लगती। भीष्म की निगरानी में हस्तिनापुर का सुरक्षित राज्य पाण्डु ने संभाला। लेकिन पाण्डु ने राज्य भार संभालते ही अपने पराक्रम द्वारा सम्पूर्ण भारतवर्ष को जीतकर कुरु राज्य की सीमाओ का यवनो के देश तक विस्तार कर दिया। लेकिन जब सीमाए इतनी बढ़ गई कि आगे कुछ पाने की चाहत ही समाप्त हो गई। तब उन्हें भी राज्य को और बढ़ाने की इच्छा शेष न रही। इस युध्ध जीवन से अपने मन को शांत करने के लिए उन्होंने वन भ्रमण का विचार किया। क्योकि लगातार युध्द मैदानों में खून बहाकर उनका मन असंतुलित सा हो चूका था। इसलिए हस्तिनापुर का कार्य भार उनकी अनुपस्थिती में जेष्ठ भाई धृतराष्ट्र को सोप कर वे वन में चले गए। (आपकी जानकारी के लिए बता दे कि पाण्डु ने कभी अपने भाई से सत्ता के लिए कोई मन मोटाव नही रखा था। वे सदैव बड़े भाई का आदर करते और हर राज चर्चा मे उनका मत भी अवश्य लेते थे।)
पाण्डु की दो पत्नियां थी, एक कुंती ओर दूजी माद्री। पाण्डु के वन भ्रमण में उनकी दोनो पत्नियां भी उनके साथ ही रही। एक बार जब राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों के साथ आखेट के लिये भ्रमण पर चले गये। देर तक वनों में यहा वहा गुमने के बाद उन्हें शिकार कही न मिला। लेकिन उन्हें एक जगह कुछ हल्की सी आवाजे सुनाई देने लगी। जब वह उस दिशा में गए, तो वहाँ उन्हें एक मृग का प्रणयरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। मृग का शिकार करने के आशय से पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। लेकिन असल मे वह मृग स्वरूप में एक तपस्वी ऋषि थे। पाण्डु का बाण लगते ही वो अपने वास्तविक सवरूप में लौट आए। लेकिन कुछ संभल पाता तब तक तो बहोत देर हो चुकी थी। पाण्डु का बाण उन्हें घायल कर चुका था। अपने कार्य से लज्जित पाण्डु जब ऋषि के समीप आये और क्षमा मांगने लगे, तब गुस्से में मरते हुये निर्दोष ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया। उनके शाप के शब्द कुछ इस कदर थे ‘हे राजन, तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। क्योकि तूमने मुझे प्रणय के समय बाण मारा है, अतः जब कभी भी तू प्रणयरत होगा तेरी भी इसी तरह से मृत्यु हो जायेगी। ‘ इतना कहकर ऋषि अपना जीवन त्याग चुके थे।
ऋषि द्वारा दिये गए इस शाप को सुनकर पाण्डु भीतर से टूट चुके थे। इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी भी हुये और फिर उतरे मुख अपने स्थान में लौट आये। आखेट से लौट कर अपनी रानियों से वे बस इतना ही बोले, की ‘हे देवियों अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा। तुम लोग चाहो तो हस्तिनापुर वापस लौट जाओ़।’ लेकिन उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होते हुए कहा की, हम तो आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। इस लिए हमे भी अपने साथ ही रखने की कृपा करें। पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया और उन्हें भी वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी। इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह भी किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, ‘राजन् कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।’
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, हे कुन्ती अब लगता हे की मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है। क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता। क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो? कुन्ती बोली, हे आर्यपुत्र दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ। इस पर पाण्डु ने कुंती से धर्मराज को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। कुंती के याद करते ही धर्मराज उपस्थित हुए। धर्मराज ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्रदेव से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। पाण्डु को उसी समय माद्री का भी ख्याल आया, और उन्होंने कुंती को इस विषय के बारे में बताया। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को भी उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और उन्ही के आशीर्वाद से नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था। शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु भी चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे प्रणय मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री भी यह देख उनके साथ ही सती हो गई, किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई। वहा रहने वाले ऋषि मुनि पाण्ड्वो को राजमहल छोड़् कर आ गये, ऋषि मुनि तथा कुन्ती के कहने पर हस्तिनापुर वासिओ ने भी पांचो पाण्ड्वो को पाण्डु का पुत्र मान लिया और उनका स्वागत भी किया।
~ सुलतान सिंह ‘जीवन’
( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते ।)
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