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महाभारत : एकलव्य कि गुरुभक्ति


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महाभारत : एकलव्य कि गुरुभक्ति


एकलव्य को सदा ही एक उपेक्षित शिष्य के स्वरूप इतिहास याद करता आया हे। यहाँ तक की आज भी हम शिक्षा के कई तरह के वार्तालाप के दरमियान एकलव्य और गुरु द्रोण के द्रष्टांत दर्शाते रहेते हे। लेकिन क्या एकलव्य ने कभी गुरु के बारे में ऐसी राय राखी थी…? जवाब हे नही। शायद यही वजह रही हे की आज भी हम एकलव्य को श्रेष्ठ शिष्य के रूप में दर्शाते हे। वेसे तो महाभारत में एकलव्य का खास कोई प्रसंग नही हे सिवाय के गुरुदक्षिणा वाला प्रसंग। लेकिन जहा तक अस्तित्व का सवाल जे एकलव्य महाभारत का अभिन्न अंग हे।

एकलव्य महाभारत का एक अभिन्न पात्र है। क्योकि एक तरह से देखा जाये तो पुरे भारतवर्ष में अगर किसी को सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर कह शकते हे तो वह सिर्फ एकलव्य ही था। जिसने बिना गुरु की उपस्थिति सिर्फ एक प्रतिमा की स्थापना करके अपना अभ्यास पूर्ण किया था। लेकिन इतिहास में एकलव्य को कूटनीति द्वारा छिपाया गया। (वेसे तो महाभारत में इसका उल्लेख स्वयं यह दर्शाता हे की उसे छुपाया नही बल्कि सन्मान के साथ दर्शाया गया हे।)

अब बात करते हे एकलव्य के बारे में। वह हिरण्य धनु नामक एक निषाद का पुत्र था। एकलव्य को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए आज भी याद किया जाता है। पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य श्रृंगबेर राज्य का शासक बना। जहा पर अमात्य परिषद की मंत्रणा से उसने न केवल अपने राज्य का संचालन किया है, बल्कि निषाद भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना को गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार भी किया। एकलव्य अपने अप्रतिम परिश्रम के ही बल पर इतिहास के पन्नो में सन्मान पूर्वक कीर्तिमान स्थान हांसिल कर शका।

जब शुरुआत में एकलव्य को धनुष चलाना शिखने का मन हुआ तो उसने अपने लिए गुरुओ की खोज शुरू कर दी। लेकिन किसी गुरु ने उसे शिखाने की तयारी नही दर्शाई। लेकिन कही से एकलव्य ने धनुरविद्यामें सर्वश्रेष्ठ गुरु द्रोण के बारे में सुना था। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में भी गया था। किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। इस अस्वीकार से निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। लेकिन वन में जाकर भी उसने हिम्मत नहीं हारी, और उसने द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा का निर्माण किया। उस प्रतिमा को ही अपना गुरु मान कर वह स्वयं ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। जब एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। तब वहा राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा था। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी। अतः उसने अपने बाणों से ही कुत्ते का मुँह बंद कर दिया।

एकलव्य ने इस कला कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट तक नहीं लगी, और वह भोकने में असमर्थ हो गया। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग ही रह गए थे और बाण चलाने वाले की खोज करते एकलव्य के आश्रम तक आ पहुँचे। आश्रम पर उन्हें यह जानकर तो और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास द्वारा यह विद्या प्राप्त की है। कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। लेकिन कुछ लोग इस बात को गुरु का अभिमान भी कहते हे। तो कुछ लोग अर्जुन को इतिहास में अमर करने के लिए द्रोण का रचा खेल भी कहते हे। पौराणिक घटनाओ में तथ्यों और सत्यो को समझना इतना आसान नही होता, इस लिए इस विषय को किस प्रकार संजना यह भी आप पर ही निर्भर रखना चाहिए।

कुछ कहानिया कहती हैं कि अपना अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। देखते ही देखते उसने इस विद्या में भी महारथ हांसल क्र लिया। एकलव्य की इसी लगन और कौशल ने उसे अमरता प्रदान की हे। यह सिध्धि पाना इतना सरल नही था, लेकिन एकलव्य के दृढ निर्णय के आगे विद्या को भी शायद झुकना पडा हो। और यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह प्राचीन प्रणाली से बेहतर तरीका है, और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था। इस लिए इसे एक नई खोज भी कह शकते हे, जिसकी शुरुआत एकलव्य द्वारा हुई थी।

अब आप ही बताईए की गुरु द्रोणाचार्य का दक्षिणा मांगना एकलव्य के लिए श्राप था या वरदान…? क्योकि अगर ऐसा न हुआ होता तो एकलव्य का इतिहास में वह स्थान न होता जो आज हे। प्राचीन शास्त्रों को समझने के लिए यह आवश्यक हे की हम उसमे वह देखे जो हमें श्रेष्ठता तक ले जाता हे, न की वह जो हमें नकारात्मक एनर्जी की और ले जाता हे।

~ सुलतान सिंह ‘जीवन’

( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते हे।)

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