भरत वंश में शान्तनु ओर सत्यवती के दो पुत्र थे। जिसमे बड़े बेटे का नाम था चित्रांगद और छोटे बेटे का नाम था विचित्रवीर्य। दोनों ही पुत्र जब बाल्यावस्था में पहोचे थे तभी उनके पिता शान्तनु का स्वर्गवास हो गया, और अब राजपाठ ओर परिवार की सारी जिम्मेदारी भीष्म पर आ पड़ी। क्योकि सत्यवती के दोनों ही पुत्र राजपाठ संभालने की आयु तक नही पहोच पाए थे। शान्तनु के स्वर्गवास के बाद हस्तिनापुर का सिंहाशन भी सुना हो गया। एक तरह से सिंहासन सुना था लेकिन कुमार भीष्म प्रतिज्ञाबद्ध थे, इसलिए उन्होंने सुने राज सिंहासन को भी नही स्वीकारा। अगर वो चाहते तो किसी भी वक्त सत्ता पलटने की शक्ति रखते थे, लेकिन उनकी प्रतिज्ञा ही मानो उनकी पहचान बन चुकी थी। आखिर कार शान्तनु पुत्र कुमार चित्रांगद बड़े होने तक हस्तिनापुर का राज सिंहासन सत्यवती द्वारा ही संभाला गया, और बाहरी मसले कुमार भीष्म को सोपे गए। बाहरी सुरक्षा के साथ साथ ही दोनों भाईओ का लालन पालन भी भीष्म के हाथों ही हुआ था। क्योकि सिंहासन की जिम्मेदारिया दिन ब दिन बिना राजा के बढ़ रही थी, भीष्म की चिंता भी बढती जा रही थी।
कुछ वर्षों तक राज्य व्यवस्था का हाल यही चलता रहा। भीष्म की छत्रछाया में हस्तिनापुर बेख़ौफ़ और स्वतंत्र ही रहा। क्योकि भीष्म के सामने टिकने वाला कोई योद्धा भारतवर्ष में कभी था ही था। हस्तिनापुर का सिर्फ सिंहासन अपने राजा के लिए सुना था लेकिन सरहदे तो आज भी कुमार भीष्म की निगरानी में अडग थी।
जैसे ही चित्रांगद की उम्र राज्यभार संभालने लायक हुई, तो स्वयम कुमार भीष्म ने उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया। लेकिन कम आयु के कारण हस्तिनापुर का विशाल राज्य संभालना इतना सरल नही था। शायद इसी कारण कुछ ही वर्ष तक चित्रांगद का शासन रहा। और फिर कुछ ही काल अंतराल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन तब भी कुमार भीष्म ने खुद राज न लेते हुए उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्यभार सौंप दिया। विचित्रवीर्य चित्रांगद की तुलना में दिन ब दिन राजभार में माहिर होते जा रहे थे। कुछ ही वर्षों में उन्होंने राजनीती के काफी दाव पेंच शिख लिए थे। भीष्म को अब राज्य भर की चिंता नही रही, लेकिन अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता सताने लग गई। विचित्रवीर्य के विवाह की सोच उनके मन मे बार बार गुमने लगी थी। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। लेकिन कुछ कारणों सर हस्तिनापुर को निमंत्रण तक नही पहोचाया गया। उस वक्त ग़ुस्से में आकर कुमार भीष्म उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही समस्त राजाओं को परास्त कर दिया, और तीनों कन्याओं का हरण कर अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
राजा शाल्व ने काफी हद तक उनका पीछा किया लेकिन आखिर कार वो भी भीष्म से परास्त हो गए। आखिर में मझबुरी वश बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बता दीया कि वह अपना तन-मन राजा शाल्व को पहेले ही अर्पित कर चुकी है। शायद तब तक बहोत देर हो चुकी थी। भीष्म ने उसे मुक्त कर दिया लेकिन तब तक शाल्व नरेश हारकर लौट चुके थे। भीष्म ने अंबा की बात सुन कर तुरंत उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया। लेकिन बात अभी यहा खत्म न हुई।
भीष्म से युध्ध में हरे हुए राजा शाल्व ने अम्बा को सामने देख कर भी मानो अनदेखा कर दिया। जब राजा शाल्व ने अंबा को ग्रहण नहीं किया, तो वो लौट कर हस्तिनापुर चली आई। हस्तिनापुर लौट कर उसने भीष्म से कहा कि, ‘हे आर्य आप मुझे स्वयंवर से हर कर लाये हैं, अत एव आप मुझसे विवाह करें।’ किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। वे जिस भीष्म प्रतिज्ञा के कारण भीष्म कहलाते थे, उसे तोड़ना उनके लिए इतना सरल भी तो नही था। लेकिन अम्बा इतना कुछ सुनकर भी शांत न हुई। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास चली गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता भी माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, की हे देवि आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।
परशुराम ने तुरंत भीष्म को बुलावा भेजा, किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। शायद भीष्म जानते थे कि आगे क्या होने वाला है। इस पर क्रोधित होकर परशुराम ने भीष्म के पास पहुँचे। उन्होंने अम्बा से विवाह करने के लिए भीष्म को बहोत समजाया लेकिन भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ने को किसी भी हालमे राजी न हुए। आखिर कर दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे, इसलिये युध्द कई दिनों तक चलता ही रहा लेकिन फिर भी हार-जीत का कोई फैसला नहीं हो सका। आखिर युध्ध की प्रतिशोधाग्नी से सृष्टि का नाश होता देखकर देवताओं ने विवाद में हस्तक्षेप कर इस युद्ध को बन्द करवाया। आखिर जब कोई मार्ग न दिखाई देने के कारण अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने के लिए चली गई।
विवाह के बाद विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये। किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई भी सन्तान नहीं हुई, और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये।
भारत वर्ष के कुल में अब कुल नाश होने का भय फैलने लगा था। क्योंकि भीष्म ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिए बैठे थे, ओर शान्तनु की संतान का कोई पुत्र नही था। ये देख कर माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा की, पुत्र इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी यही इच्छा और आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र रत्न उत्पन्न करो। लेकिन भीष्म ने इस बात से भी इनकार कर दिया। उल्टा माता की बात सुन कर भीष्म ने ये कह दिया कि, माता मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता। चाहे उसके लिए मुझे देवो से क्यो न लड़ना पड़े।
माता सत्यवती को यह सब सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ। लेकिन वह इस बारे में कुछ नही कर शकती थी। अचानक ही उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। सत्यवती के अंतरमन से स्मरण करते ही वेदव्यास स्वयं वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर खुश हुई और बोलीं की, हे पुत्र तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये है। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ, कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो। वेदव्यास उनकी आज्ञा मान गए और उन्होंने कहा कि, माता आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम-व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा। उन्होंने एक वर्ष वही सब किया जेसा उन्हें कहा गया था। एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। लेकिन अम्बिका ने तो उनके तेज से डर कर ही अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास जब वहा से लौट कर आये तो उन्होंने माता से कहा की, माता अम्बिका का बड़ा ही तेजस्वी पुत्र होगा। किन्तु मुझे देखकर ही अपने नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह जन्म से ही अंधा होगा। सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख तो हुआ लेकिन फिर उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेज दिया।
अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा की, माता अम्बालिका भी मुझे देख कर डर से पीली सी पड़ गई इसलिए अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र का जन्म होगा। इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दे दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग किया। इस बार वेदव्यास ने प्रसन्न होकर माता सत्यवती के पास आ कर कहा, माते इस दासी के गर्भ से जो पुत्र प्राप्त होगा वह वेद-वेदान्त में पारंगत ओर अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा। इतना कह कर वेदव्यास फिर एकबार तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध पुत्र धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा पुत्र विदुर का जन्म हुआ। जिन्हें इतिहास दासीपुत्र नाम से भी याद करता हे। उनका नीतिशास्त्र आज भी श्रेष्ठ माना जाता हे। ( ये विदुर धर्मराज यमराज का शापित अवतार माने जाते है।)
~ सुलतान सिंह ‘जीवन’
( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते ।)
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