जब से इन्द्रप्रस्थ भोज के लिए कौरव और सबको आमंत्रित किया गया था, तब से ही इन्द्रप्रस्थ की चकाचोंध देखकर दोर्योधन हक्काबक्का सा रह गया था। खांडववन को इन्द्रप्रस्थ बनाया जा सकता था इसकी कल्पना भी शायद दुर्योधन ने नही की थी। और पांडवो ख़ुशी वह देख नही पा रहा था। शकुनी और दुर्योधन ने इस आनंद में विक्षेप करने और पांडवो से इन्द्रप्रस्थ छीन लेने के लिए एक योजना बना ली थी। विदुर के बार बार इस बात से विरोध करने पर भी धृतराष्ट्र ने उनही को इन्द्रप्रस्थ जाकर युधिष्ठिर और भाइओ को आमन्त्रित करने के लिए कहा, साथ ही यह भी कहा कि वह पांडवों को उनकी योजना के विषय में कुछ भी न बताये। विदुर राज आज्ञा के आगे जुककर उनका संदेश लेकर पांडवों को आमन्त्रित कर आये। लकिन साथ ही उन्हें यह चेतावनी तक दी की मेरे सुझाव से आपको यह प्रस्ताव ठुकरा देना चाहिए। किन्तु धर्म राज युधिष्ठिर अपने सामने पड़े निमंत्रण को ठुकरा पाने के पक्ष में नहीं थे। वे मानते थे की उचित कारण के बिना किसी के आग्रह को ठुकराना नहीं चाहिए। और विदुर ने भी इस आग्रह के पीछे छुपे भयावह खेल के बारे में उन्हें नही बताया था। क्योकि वे राज आज्ञा का उल्लंघन नही कर शकते थे। फिर भी उन्होंने चेताया जरुर था। लेकिन नियति का लिखा शायद कोई नही बदल शकता और व्ही हुआ। युधिष्ठिर और पांडव चुनौती का स्वीकार कर हस्तिनापुर आग्रह वश चले आये।
विदुर और तातश्री यही चाहते थे की पांडव उनकी चेतावनी को गंभीरता पूर्वक ले, लेकिन ऐसा नही हुआ। पांडव ख़ुशी ख़ुशी राजमहेल चले आए। तब और कोई मार्ग न रहने पर पांडवों के हस्तिनापुर में पहुंचने पर विदुर ने उनको एकांत में ले जाकर यहाँ आयोजित संपूर्ण योजना से अवगत करवाया तथापि युधिष्ठिर ने इस चुनौती को युध्ध समान मानते हुए स्वीकार कर लीया। इसके बाद तो वाही हुआ जो दुर्योधन चाहता था। शकुनी अपने अभिमंत्रित पासो द्वारा वही दाव खेलता रहा जो दाव दुर्योधन के पक्ष में थे। एक एक कर पांडव सब कुछ हार चुके थे, लेकिन दुर्योधन इससे भी अधिक चाहता था। वे अबतक के खेल में इन्द्रप्रस्थ, नगर, हीरे-जवाहरात, धन-संपत्ति, अस्त्र-शस्त्र, सेना, नर्तकिया, बाग-बगीचे, जमीन सब हार चुके थे। उनके पास सिवाय अपने अस्तित्व के और कुछ नही बचा तब भी दुर्योधन इस खेल को आगे बढ़ाना चाहता था। सहदेव त्रिकाल ज्ञानी था लेकिन किसीने उसे पूछने तक को उचित नही समझा और श्राप के कारण बिना पूछे वह कुछ बता नही पाया। सहदेव सब जानते हुए भी सिर्फ देख शकता था, और कुछ नही। जेसा उसने भविष्य देखा था आखिरकार वही हुआ। खेल फिर शुरू हुआ अब एक एक कर युधिष्ठिर पांचो पांडव और यहा तक की खुद को भी हार गया। लेकिन दुर्योधन के आग्रह पर उसने द्रौपदी को भी दाव पर लगा दिया। पूरी सभा शर्म और लज्जा से जुक चुकी थी। लेकिन उस वक्त महात्मा विदुर ने विरोध करते हुए कहा की अपने-अपको दांव पर हारने के बाद युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगाने के अधिकारी ही नहीं रह जाते, तो फिर द्रौपदी को हारना केसे उचित माना जा शकता हे। लेकिन दुर्योधन फिर भी नहीं माना वह हाररी हुइ द्रौपदी को सभा में लाना चाहता था। धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रतिकामी नामक सेवक द्वारा द्रौपदी को सभा में आने के लिए बुलावा भेजा गया। लेकिन द्रौपदी ने उससे भी यही प्रश्न पूछा कि धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने पहले कौन सा दांव हारा है – स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का। जब सभा में आकर सेवक ने यह बात खी तो दुर्योंधन ने क्रुद्ध होकर दुशासन को आदेश देते हुए कहा कि वह द्रौपदी को सभा भवन में लेकर आये। युधिष्ठिर ने भी उस वक्त गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक को द्रौपदी के पास भेज दिया था यह कहने के लिए कि यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है, तो वह वैसी ही उठ कर चली आये। सभा में बेठे हुए पूज्य वर्ग के सामने उसका इस दशा में कलपते हुए पहुंचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा।
दुसासन उसे बालो से पकडकर सभा तक ले आया। द्रौपदी भी न चाहते हुए सभा महल तक तो आई लेकिन वह आते ही स्त्री वर्ग (सभा में स्त्रिओ के बेठने की वयवस्था) के स्थान की और जाने लगी लेकिन दुशासन ने उसे रोक लिया। जब वह नही मानी तो बालो से पकड कर घसीटते हुए वह उसे बिच सभा में ले आया। दुशासन ने सभा में सबके सामने घोषणा करते स्वर में कहा की अब तुम कोई रानी नही हो। हमने तुम्हे जुए में जीता हे, और जुए में जीती चीज दसियो के साथ रखी जाती हे। द्रौपदी में अपने बचाव के लिए सभा में बेठे पूज्य और समस्त कुरुवंशियों के शौर्य, धर्म तथा नीति को ललकारा, लेकिन राज आज्ञा और राज सेवा के तले सब मौन रहे। लम्बे समय तक उसन एक एक कर सभी आदरणीय व्यक्तिओ से सहाय मांगी लेकिन वह सब भी राज आज्ञा के कारण निसहाय थे। उस वक्त जब कोई नही बोल पाया तब कौरव में से विकर्ण ने इसका विरोध किया। उसने सभा को संबोधित कर कहा की खुद को हारे हुए युधिष्ठिर द्रौपदी को दाव में लगाने के अधिकारी ही नहीं रह जाते हे। लेकिन उसकी बात वहा बेठे किसीने नही मानी। विकर्ण की बात को न मानने के कारण वह सभा छोड़ कर चला गया। पूज्य और आदरणीय सभी महात्मा किसी बुत की भाति निसहाय बनकर बेठे हुए थे। लेकिन दुर्योधन का बदला अभी पूर्ण नही हुआ था। उसने भारी सभा में अपनी जंघा पिटते हुए द्रौपदी को आपनी गोद में बेठने के लिए आमंत्रित किया। भीम गुस्से से तिलमिला उठा लेकिन अर्जुन ने उसे शांत कर दिया। धर्म के पक्षधर माने जाने वाले दानवीर कर्ण भी यहाँ संगत की असर न चुके और उन्होंने द्रौपदी को संबोधते हुए कहा ‘की जो स्त्री पांच पांच पतिओ को वर शकती हो उस स्त्री को और पुरुषो से वर ने में क्या समस्या हो शकती हे’। इससे दुर्योधन का साहस और बाढा और उसने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया, भाई के कहने पर दुशासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्रा करने की चेष्टा की। उधर विलाप करती हुई द्रौपदी ने पांडवों की ओर देखा लेकिन वे निसहाय थे और उसने भारी सभा में यह प्रतिज्ञा कर दी की ‘जिस जंघा पर तुमने द्रौपदी को भारी सभा में बिठाने के लिए आमंत्रित किया हे उसी जंघा क अपनी गदा से तोड़ दूंगा, और हां उसने दुशासन की और द्रष्टि करते हुए कहा की तूने द्रौपदी को इस स्थिति में बालो से घसीटा हे इस लिए तेरी छाती को चिर कर मर्दन नाच करूँगा।‘ और वही द्रौपदी ने भी यह प्रतिज्ञा ली थी की जब तक दुशासन के रक्त से वह अपने केश नही धोएगी आने बालो को कभी बांधेगी नही।‘ यह सब सुनने के बाद सभा में खलबली मच चुकी थी। कुरु वंश का आनेवाला भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा था। इसी चिंता में तातश्री और महात्मा विदुर सहित सभी सभासदों ने धृतराष्ट्र से इसे रोक लेने की अर्ज की, लेकिन पुत्र मोह में अंध धृतराष्ट्र शांत रहे। उसने एक एक कर अपने पतिओ से सही मांगी लेकिन सब बड़े भाई की आज्ञा के बिना कुछ भी करने में असमर्थ थे।
आखिर कार द्रौपदी ने अपने बाहुबली पति भीम से सहायता मांगी। भीम युधिष्ठिर के कारण निसहाय था, लेकिन गुस्से में आकर युधिष्ठिर से कहा कि वह उसके हाथ जला देना चाहता है, जिनसे उन्होंने यह जुआ खेला था। और अपने स्थान पर खड़े होकर भरी सभा में यह प्रतिज्ञा भी कर दी, की जिस जंघा पर तुमने द्रौपदी को भरी सभा में बिठाने के लिए आमंत्रित किया हे उसी जंघा को में अपनी गदा से तोड़ दूंगा, और हां उसने दुशासन की और द्रष्टि करते हुए कहा की तूने द्रौपदी को इस स्थिति में बालो से घसीटा हे इस लिए तेरी छाती को चिर कर व्ही पर मर्दन नाच करूँगा। जब दुशासन उसके वस्त्र खींचने आया तब द्रौपदी ने पतिओ को असहाय देख विकट विपत्ति में श्रीकृष्ण का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की कृपा से अनेक वस्त्र वहां प्रकट हुए जिनसे द्रौपदी आच्छादित रही फलत उसके वस्त्र खींचकर उतारते हुए भी दुशासन उसे नग्न नहीं कर पाया। दूसरी और द्रौपदी ने भी भारी सभा में यह प्रतिज्ञा कर ली थी की जब तक दुशासन के रक्त से वह अपने केश नही धोएगी आने बालो को कभी बांधेगी नही।‘ यह सब सुनने के बाद सभा में खलबली मच चुकी थी। कुरु वंश का आनेवाला भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा था। इसी चिंता में तातश्री और महात्मा विदुर सहित सभी सभासदों ने धृतराष्ट्र से इसे रोक लेने की अर्ज की, लेकिन पुत्र मोह में अंध धृतराष्ट्र शांत रहे। अब सभा में बार-बार कार्य के अनौचित्य अथवा औचित्य पर विवाद खड़ा होने लगा था।
खुद गुनाहगार बन रहे थे इसलिए पांडवों को मौन बेठे हुए देखकर दुर्योधन ने पूछा की ‘द्रौपदी की, दांव में हारे जाने’ की बात ठीक है या गलत, इसका निर्णय में भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव पर छोड़ दिया। अर्जुन तथा भीम ने वही कहा जो महात्मा विदुर और विकर्ण ने कहा था, कि जो व्यक्ति स्वयं को दांव में हरा चुका है वह किसी अन्य वस्तु को दांव पर रख ही नहीं सकता। समय के रहेते सबको अपनी अपनी भूल समज आने लगी थी। और वडीलो के वाद विवाद आब बढ़ राहे थे, द्रौपदी के साथ जो कुछ सभा में हुआ उसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए सभी ने महाराज को जिम्मेदार ठहेराया। सभा का बदला प्रवाह पहचानकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को दांट लगे और उसके कर्मो को अनिचित बताया। द्रौपदी गुस्से से तिलमिला उठी थी उसने अपने मुख से श्राप देना आरंभ कर दिया था, उसने सभा में बेठे सभी लोगो के नाम का उच्चारण करते हुए कुरुवंश के विनाश का श्राप उच्चारा ही था की गांधारी ने सभा में प्रवेश कर उसे रोक लिया। सभा में घटित होने वाली घटनाओ के लिए उन्होंने द्रौपदी से हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी और तिन वरदान मांगने को कहा। आखिर कार माता गांधारी का जुका सर देख द्रौपदी पिघल गई। प्रथम वरदान में धर्मराज युधिष्ठिर की दासभाव से मुक्ति मांगी ताकि भविष्य में उसका पुत्र प्रतिविंध्य दास पुत्र न कहलाए। वाही दूसरे वर में भीम, अर्जुन नकुल तथा सहदेव की, शस्त्रों तथा रथ सहित दासभाव से मुक्ति मांगी।
जब तीसरा वर मांगने के लिए कहा गया तो इसके लिए वह तैयार ही नहीं हुई। द्रौपदी के अनुसार क्षत्रिय स्त्रियों सिर्फ दो वर मांगने की ही अधिकारिणी होती हैं। धृतराष्ट्र ने उनसे संपूर्ण विगत को भूलकर अपना स्नेह बनाए रखने के लिए कहा, साथ ही साथ उन्हें खांडव वन में जाकर अपना राज्य भोगने की अनुमति भी प्रदान कर दी। लेकिन दुर्योधन इतने से मानने वाला नहीं था, और अगर मान भी जाये तो शकुनी उसे कहा मानने देता। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ हथियाने के लिए और पांड्वो को राज्य से निकल फेंकने के लिए एक और योजना बनाई। धृतराष्ट्र ने उनके खांडववन जाने से पूर्व दुर्योधन की प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। लेकिन इसबार यह साफ़ तौर पर तय हुआ कि परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन केवल एक ही दांव रखा जायेगा। डाव यह था की पांडव अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के रोकने पर भी एक बार फिर से धृतक्रीड़ा हुई जिसमें एक बार फिर से पांडव हार गये, छली शकुनि जीत गया। कौरवो को राज मिला और पांड्वो को वनवास।
इस बार वनगमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही अब चैन की सांस लेंगे। श्री धौम्य (पुरोहित) के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ ले कर वन के लिए प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढ़े। वे यह कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे। युधिष्ठिर ने अपना मुंह ढका हुआ था (वे अपने क्रुद्ध नेत्रों से देखकर किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे), भीम अपने बाहु की ओर देख रहा था (अपने बाहुबल को स्मरण कर रहा था), अर्जुन रेत बिखेरता जा रहा था (ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों की वर्षा करेगा), सहदेव ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी। (दुर्दिन में कोई पहचान न ले), नकुल ने बदन पर मिट्टी मल रखी थी (कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो), द्रौपदी ने बाल खोले हुए थे, उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी (जिस अन्याय से उसकी वह दशा हुई थी, चौदह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी वही दशा होगी, वे अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी। किसी तरह पांड्वो ने वन वन भटककर बारह वर्ष का वनवास पूरब किया। इसी दौरान कौरवो के जमाई जयद्रर्त द्वारा द्रौपदी हरण वाला प्रसंग आता हे (लेकिन वह फिर कभी)।
वनवास के बारहवें वर्ष के पूरे होने पर पाण्डवों ने अब अपने अज्ञातवास के लिये योजना प्रारम्भ कर दी। वः जानते थे की अगर इस वर्ष में उन्हें पहचान लिया गया तो, फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ेगा। आखिर कार हस्तिनापुर से कई दूर बसे मत्स्य देश के राजा विराट के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और फिर मत्स्य देश की ओर निकल पड़े। मार्ग के एक भयानक वन के भीतर के एक श्मशान में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को छुपा कर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा हड्डियों को रख दिया जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने वन भ्रमण के दौरान अपने छद्म नाम भी रख लिये – जो थे जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। किन्तु ये नाम भी केवल मार्ग के लिये थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने वाले थे। राजा विराट के दरबार में पहुँच कर युधिष्ठिर ने कहा, हे राजन् मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है। मैं धृतविद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ। विराट राजा ने उनका स्वागत करते हुए कहा की कंक तुम दर्शनीय पुरुष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें अपने राज्य में पाकर प्रसन्न हूँ। अतएव तुम सम्मान पूर्वक यहाँ रहो। उसके बाद शेष पाण्डव राजा विराट के दरबार में पहुँचे और बोले, हे राजाधिराज हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे, लेकिन अब हम काम तलास कर रहे हे।
पाण्डवों के वनवास हो जाने पर हम अब आपके दरबार में सेवा के लिये उपस्थित हुये हैं। हमे आशा हे की यहाँ से हमे निराशा नहीं मिलेगी। राजा विराट के द्वारा परिचय पूछने पर सर्वप्रथम हाथ में करछी-कढ़ाई लिये हुये भीमसेन ने अपने परिचय में कहा की महाराज आपका कल्याण हो, मेरा नाम बल्लभ है। मैं रसोई बनाने का कार्य उत्तम प्रकार से जानता हूँ। मैं महाराज युधिष्ठिर का प्रमुख रसोइया था। सहदेव ने कहा, महाराज मेरा नाम तन्तिपाल है, मैं गाय-बछड़ों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ। मैं भी बल्लभ के साथ ही महाराज युधिष्ठिर के गौशाला की देखभाल किया करता था। नकुल बोले, हे मत्स्याधिपति मेरा नाम ग्रान्थिक है, मैं अश्व विद्या में निपुण हूँ। राजा युधिष्ठिर के यहाँ मेरा काम उनके अश्वशाला की देखभाल करना था। महाराज विराट ने उन सभी को अपनी सेवा में रख लिया। अन्त में उर्वशी के द्वारा दिये गये शापवश नपुंसक बने, हाथीदांत की चूड़ियाँ पहने तथा सिर पर चोटी गूँथे हुये अर्जुन बोले, हे मत्स्यराज मेरा नाम वृहन्नला है, मैं नृत्य-संगीत विद्या में निपुण हूँ। चूँकि मैं नपुंसक हूँ इसलिये महाराज युधिष्ठिर ने मुझे अपने अन्तःपुर की कन्यायों को नृत्य और संगीत सिखाने के लिये नियुक्त किया था। वृहन्नला के नृत्य-संगीत के प्रदर्शन पर मुग्ध होकर, उसकी नपुंसकता की जाँच करवाने के पश्चात्, महाराज विराट ने उसे अपनी पुत्री उत्तरा की नृत्य-संगीत के शिक्षा के लिये नियुक्त कर लिया। इधर द्रौपदी राजा विराट की पत्नी सुदेष्णा के पास जाकर बोलीं, महारानी मेरा नाम सैरन्ध्री है। मैं पहले धर्मराज युधिष्ठिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी किन्तु उनके वनवास चले जाने के कारण मैं कार्यमुक्त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई हूँ। सैरन्ध्री के रूप, गुण तथा सौन्दर्य से प्रभावित होकर महारानी सुदेष्णा ने उसे अपनी मुख्य दासी के रूप में नियुक्त कर लिया। इस प्रकार पाण्डवों ने मत्स्य देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्त होकर अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया।
~ सुलतान सिंह ‘जीवन’
( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते हे ।)
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