लाक्षागृह षड्यंत्र के बाद पुरे भारत वर्ष में पांडवो के मृत्यु के समाचार फेल चुके थे। दुर्योधन और शकुनी भी इसी बात से निश्चिंत थे, तब तक जब तक द्रौपदी का स्वयंवर नही हुआ। क्योकि इससे पहेले महात्मा विदुर के आलावा किसी व्यक्ति को यह मालूम नही था की पांडव वहा से जिंदा बचकर निकले होंगे। विदुर ने पांड्वो की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस बात को तब तक गुप्त रखा जब तक यह बात खुद निकल कर सबके सामने नही आ गई। यहाँ तक की स्वयं पितामह को भी महात्मा विदुर ने यह बात नही बताई थी, क्योकि वह किसी भी प्रकार से पांडू पुत्रो की जान फिर एक बार जोखिम में डालना नही चाहते थे।
वास्तव मे कई समय तक छुपाया गया भेद द्रौपदी के स्वयंवर में कुछ हद तक खुल गया। क्योकि भारत वर्ष के किसी बाहुबल वाले राजा-महाराजा ने जो स्वयंवर में न किया, उसी लक्ष्य को एक ब्राह्मण कुमार ने बड़ी सरलता से भेद दिया। और शर्त के अनुसार लक्ष्य भेदने के साथ ही उसने द्रौपदी को भी जित लिया था। जब द्रौपदी के ब्राह्मण कुमार से विवाह के मुद्दे पर सभा में विरोध हुआ, तब पांचो ब्राह्मण कुमार एक साथ युध्ध के लिए तैयार हो गए। उस सभा में मोजूद कई लोग इस बात पर संदेह जता रहे थे की यह कोई सामान्य ब्राह्मण तो कदापि नही हो शकते। और यही कानाफूसी दुर्योधन के अंदर पनपते संदेह के लिए भी आग बन गई। जिन्हें आजतक मृत समजकर उन्होंने उत्शाह मनाया था, उनके जीवित होने के संदेह से दुर्योधन पागल सा हो गया था। शकुनी ने यह संदेह परखकर दुर्योधन को युवराज घोषित करवाने की योजना भी बना ली। क्योकि स्वयंवर के कुछ ही दिनों में पुरे भारतवर्ष में पांडवो के जीवित होने की खबर फेल चुकी थी।
लेकिन जब पुरे भारत वर्ष में यह खबर फेली तो महाराजा धृतराष्ट्र द्वारा पितामह ने पांडव कुमारो को महेल लोट आने के लिए बुलावा भिजवाया। महेल से आया बुलावा न टालते हुए पांडव माता और पत्नी सहित महेल लौट आये। महेल आते ही पांड्वो ने अपने हिस्से का राज माँगा। युवराज पद के अधिकारी होते हुए भी युधिष्ठिर ने कौरवो से कलह न इच्छते हुए अपने हिस्से का राज मांग लिया। लेकिन युवराज बने हुए दुर्योधन को यह भी मंजूर नही था की पांड्वो को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिले। आखिर कार युधिष्ठिर ने और सुलह चाहते हुए पांच भाईओ के लिए सिर्फ पांच गाँव मांगे। सभा में इस सुझाव को मानना स्वीकार्य बताया गया, क्योकि जो पांडव कुमार राज्य के वास्तविक और योग्य उत्तराधिकारी थे उन्हें आधा राज्य मिलना आधिकारिक था। लेकिन उन्होंने सिर्फ पांच गाव मांग अपनी श्रेष्ठता साबित कर दी थी। सभा की स्वीकृति के बाद भी दुर्योधन अपने फेसले पर अटल था। वह तो पांडवो को सुई जितनी जमीन तक देने को तैयार नही था। आखिर कार धृतराष्ट्र ने पुत्र प्रेम में बहकर और गृह युध्ध से बचने के लिए बिच का मार्ग चुना। जिससे उन्हें पुत्र को भी न दुखी करना पड़े और अपना कर्तव्य भी न चूकना पडे। आखिर कार पांडवो को अपने हिस्से के बदले खंडहर स्वरूप हस्तिनापुर का खांडववन मिला।
आखिर कार आधे राज्य के उत्तराधिकारी होने के बावजूद युधिष्ठर ने कौरवों द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डववन को स्वीकार कर लिया। वेसे अब वे पहेले से ज्यादा सक्षम हो चुके थे लेकिन फिर भी युध्ध नही चाहते थे। पांचाल राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी से विवाह करने के बाद पांडवों की पांचाल राज्य की मित्रता से वे अब काफ़ी शक्तिशाली भी हो गए थे। लेकिन महाराजा धृतराष्ट्र ने उन्हें खांडववन देते समय युधिष्ठिर से कहा की पुत्र अपने भ्राताओं के संग महेल में तुम्हारा स्वागत करता हु। लेकिन जो मैं कहता हुं वह भी ध्यान से सुनो। तुम खांडवप्रस्थ के खंडहर वन को हटा कर वहा अपने लिए एक शहर का निर्माण करो, जिससे कि तुममें और मेरे पुत्रों में कोई अंतर ना रहे। और में तो चाहता हु की यदि तुम अपने स्थान में रहोगे, तो तुमको कोई भी क्षति नहीं पहुंचा पाएगा। पार्थ द्वारा रक्षित तुम सभी भाई खांडवप्रस्थ में निवास करो, और हस्तिनापुर का राज्य भोगो।
लेकिन वास्तविकता इससे कुछ अलग ही थी। उस समय खांडववन वीरान खंडहर के साथ दानव और असुरी शक्तिओ का केंद्र था। लेकिन धृतराष्ट्र के कथन अनुसार, पांडवों ने आज्ञावश हस्तिनापुर से प्रस्थान किया। आधे राज्य के आश्वासन के साथ उन्होंने पार्थ की सहायता द्वारा खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता लेकर उस शहर का सौन्दर्यीकरण भी किया। (कुछ लोक गाथाए तो इन्द्रप्रस्थ का वैभव दर्शाते हुए इसका निर्माता कुबेर को मानते हे।) महल निर्माण पूर्ण होने के बाद वह शहर द्वितीय स्वर्ग के समान अवर्णनीय और अद्वितीय प्रासाद बन गया था। जब महेल और नगर निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ तब सभि महारथियों व राज्यों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में वहां श्रीकृष्ण ने द्वैपायन व्यास के सान्निध्य में एक महान यज्ञ और गृहप्रवेश अनुष्ठान का आयोजन किया। उसके बाद इन्द्रप्रस्थ सागर जैसी चौड़ी खाई से घिरा हुआ, स्वर्ग गगनचुम्बी चहारदीवारी से घिरा व चंद्रमा या सूखे मेघों जैसा श्वेत और पूरा नगर नागों की राजधानी भोगवती नगर जैसा भव्य और अप्रतिम लगने लगा। इसमें अनगिनत प्रासाद और असंख्य द्वार बनाये गए थे। प्रासाद के प्रत्येक द्वार गरुड़ के विशाल फ़ैले पंखों की तरह खुलते और बंध होते थे। पुरे शहर की रक्षा के लिए दीवार में मंदराचल पर्वत जैसे विशाल द्वार थे। इस प्रासाद को इतनी बारीकी और कारीगरी से बनाया गया था की शस्त्रों से सुसज्जित इस सुरक्षित नगरी को दुश्मनों का एक बाण भी खरौंच नहीं लगा सकता था। उसकी दीवारों पर तोपें और शतघ्नियां रखीं थीं, जैसे की दुमुंही विशाल सांप होते हैं। बुर्जियों पर सशस्त्र सेना के सैनिक तैनात किये गए थे। उन दीवारों पर वृहत लौह के विशाल चक्र भी लगे थे। यहां की सडकें चौड़ी और साफ सुथरी बनाई गई थीं। उन पर चलते समय दुर्घटना का किसी प्रकार से भय नहीं रह जाता था। कभी कभी तो भव्य महलों, अट्टालिकाओं और प्रासादों से सुसज्जित यह नगरी इंद्र की अमरावती से कुछ अधिक भव्य प्रतीत होती थी।
शायद इस कारण ही खांडवप्रस्थ में निर्माण हुए इस नगर को इंद्रप्रस्थ नाम दिया गया था। इस शहर के सर्वश्रेष्ठ भाग में पांडवों का आलिशान महल स्थित था। इसमें कुबेर के समान खजाना और अमूल्य रत्न भंडार भी रखे गए थे। इतने वैभव से यह महल परिपूर्ण था की इसको देखने वाले की आँखे तक चौधिया जाए। इस नगर के बसते ही बड़ी संख्या में ब्राह्मण आए, जिनके पास हर प्रकार के वेद-शास्त्र इत्यादि मौजूद थे, व सभी भाषाओं में वे पारंगत थे। यहां सभी दिशाओं से बहुल्य संख्या मे व्यापारीगण भी पधारे। शायद उन्हें यहां व्यापार कर रत्न संपत्ति मिलने की आशाएं एनी नगर और शहेरो से अधिक थीं। बहुत से कारीगर वर्ग के लोग भी यहां आ कर बस गए। इस शहर को घेरे हुए, कई सुंदर उद्यान बने हुए थे, जिनमें असंख्य प्रजातियों के फल और फूल इत्यादि भी लगे थे। इनमें आम्र, अमरतक, कदंब अशोक, चंपक, पुन्नग, नाग, लकुचा, पनास, सालस और तालस के वृक्ष भी लगे हुए थे। तमाल, वकुल और केतकी के महकते पेड़ इस नगरी को खुशनुमा बनाए रखते थे। सुंदर और पुष्पित अमलक, जिनकी शाखाएं फलों से लदी होने के कारण हमेशा झुकी सी रहती थीं। लोध्र और सुंदर अंकोल वृक्ष भी यहा भारी मात्रा में थे। जम्बू, पाटल, कुंजक, अतिमुक्ता, करविरस, पारिजात और ढ़ेरों अन्य प्रकार के पेड़ पौधे लगाए गए थे। अनेकों हरे भरे कुञ्ज यहां मयूर और कोकिल ध्वनियों से गूंजते रहते थे। कई विलासगृह थे, जो कि शीशे जैसे चमकदार थे, और लताओं से ढंके थे। यहां कई कृत्रिम टीले थे, और जल से ऊपर तक भरे सरोवर और झीलें भी बनी हुई थी। कमल तड़ाग जिनमें हंस और बत्तखें, चक्रवाक इत्यादि किल्लोल करते रहते थे। यहां कई सरोवरों में बहुत से जलीय पौधों की भी भरमार बिखरी पड़ी थी। यहां रहकर, और इस शहर की भव्यता को भोगकर, पांडवों की खुशी दिनोंदिन मानो बढ़ती ही जा रही थी।
कुछ और लोक कथाए भी हे :
भीष्म पितामह और धृतराष्ट्र के अपने प्रति दर्शित नैतिक व्यवहार के परिणाम स्वरूप पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ में परिवर्तित कर दिया था| पाण्डु कुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ खाण्डववन को अपनी विद्या से जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया। वहा अर्जुन और कृष्ण ने साथ मिलकर समस्त देवताओ को युद्ध मे परास्त कर दिया। इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया और कृष्ण जी ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होने वाले बाण प्राप्त किये हुए थे। इन्द्र अप्ने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए। इन्द्र के कहने पर देव शिल्पि विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डववन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर मे निर्मित कर दिया, जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया।
~ सुलतान सिंह ‘जीवन’
( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते हे ।)
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