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Sunday Story Tale’s – ईद मुबारक


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Sunday Story Tale’s – ईद मुबारक


‘चलो, इस बार ईद मेरे घर मनाना !’ – दो दिन पहले राजीव ने कहा था। और आज देखो, दोनों ही उसके घर की और निकल भी दिए। वैसे देखा जाए तो, ईद की रात यंहा बेंगलुरु में अपने किराये के मकान में अकेले बैठे रहने से बहेतर ही था कि राजीव के गाँव हो आया जाए। राजीव का और मेरा गांव पासपास ही है। वैसे कहेने को तो दोनों अलग-अलग गांव के रहने वाले थे, पर यंहा बेंगलुरु में दोनों एक ही कमरे में रहा करते हैं।

राजीव की नौकरी को तकरीबन डेढ़ साल हो गया है। और इन डेढ़ सालों में वो एक बार भी घर नहीं जा सका। वैसे तो यंहा से घर काफी दूर होने की वज़ह से मैं भी बारबार घर नहीं जा पाता था। आखरी बार अब्बा की बुरी खबर मिलने पर घर जाना पड़ा था। ‘घर जाना और, घर जाना पड़ना’ में बहुत अंतर होता है ! और शायद इसीलिए राजीव ने घर की बात की तो में जरा हिचक गया। क्योंकि अब उस गाँव में मेरा कोनसा घर बचा था? कहने को एक मकान बचा था, चार दिवरियों से सजा, बिन अपनों के बचा ! अम्मी तो बचपन में ही छोड़ कर चल बसी थी, क्योंकि शायद अल्लाह मुझे बचपन दिखाना ही नहीं चाहते थे ! और पिछले साल अब्बा भी…! और इकलौते होने की जितनी खुशी हुआ करती थी आज उतना ही गम महसूस होता है। हां, एक बात चुभती रहती है। अब्बा की दिली ख्वाइश थी कि हम जल्द से जल्द निकाह पढ़ लें। पर हम पहेले किताबें पढ़ते रहे और फिर बैंक की पासबुक, इन्हीं चक्करों में निकाह तो पढ़ना ही रह गया !

राजीव के कहने पर भी सोच ही रहा था कि उसके घर जाया जाए या नहीं। पर मानों जैसे कुछ था जो मुझे उस ओर खींच रहा था। और वो ‘कुछ’ उसकी बूढ़ी मां की प्यार भरी आवाज़ थी ! राजीव जितनी बातें अपनी बीवी की किया करता था, उससे चार गुना बातें वो अपनी मां की किया करता था। हरवक्त कहता रहता था, मां यंहा होती तो ये करती, मां यंहा होती तो ये बनाती, मां यंहा होती तो मैं उसे यंहा सैर करवाने ले जाता, मां यंहा होती तो… और उसकी बातों में मां का ‘यंहा’ होना मायने रखता था, जब कि मैं सोचता था अगर अम्मी होती तो मैं खुद यंहा न होता ! उसके पास उसकी गोद में सर रखकर सोया रहता।

वैसे तो मैं राजीव की मां से कभी मिला नहीं, पर हां तस्वीर जरूर देखी है। राजीव भूले बिना उसे बटुए में लिए घूमता है। कभी कभी उसे देखकर रो भी देता है ! वह घंटो तक अपनी भीगी आखों से उस छोटी सी तस्वीर को देखता रहता है। कभी कभी मैं भी उसके साथ हो लेता हूं, पर मेरी आँखों मे उसकी तरह नमी नहीं होती, उसमें एक अनकही जिज्ञासा होती है, क्या सभी की मां ऐसी ही होती है ?

राजीव कहता है कि अब मां बहोत कम देख पाती है, और तो और अब तो थोड़ा ऊंचा ही सुनाई पड़ता है ! और इस बात का तो मैं खुद गवाह हूं। अक्सर जब राजीव सो रहा होता है, या बाथरूम में होता है, या फिर किसी काम में लगा हुआ होता है, और अगर तभी मां का फोन आता है तो वो मुजे बात करने को फोन थमा देता है। जिससे मां का थोड़ा वक़्त बीते और तब तक वो काम निपटा कर वापस आ सके। पर कभी कभी तो ये भी हुआ है, की राजीव की मां ने मुजे ही राजीव समझ कर सारी बातें कह डाली हों, और राजीव के वापस आने तक तो फोन भी डिस्कनेक्ट हो चुका होता है ! अब इस्सी से उनके सुनने और आवाज पहचानने की क्षमता का अंदाज लगाया जा सकता है ! शुरू में जब ऐसा होता तब हम हंस देते थे, पर बाद में तो मैं जैसे ज़िद ही पकड़ लीया करता था कि, मां से पहले मैं ही बात करूंगा !

एकबार ऐसे ही बात करते वक़्त राजीव की बीवी बीच में से लाइन पर आ गई, और हमारा सारा खेल पकड़ा गया। तब जा कर राजीव ने अपनी मां से कही की, ‘मां मैं और फरहाद अक्सर तुमसे ऐसे बातें किया करते थे !’ ये सुन वो भी हंस पड़ी और बोली, ‘मेरे लिए तो क्या राजीव और क्या फरहाद ? दोनों ही तो मेरे बच्चे हैं !’ उस रात मेरी आँखों में नींद का नामोनिशां नहीं था, क्योंकि जिस औरत ने मुजे कभी देखा तक नहीं वो मुजे ‘बेटा’ कह रही थी। और एक बिन मां के बच्चे के लिए ये कोई छोटी बात नहीं थी !

और आज मैं उसी औरत से मिलने जा रहा हूं। सच कहूं तो एक अजीब सा डर, एक ज़िज़क है मन में ! की कंही जैसा मैं सोच रहा हूं वैसा होगा भी या नहीं ? एक मिनट के लिए तो ये भी लगा कि शायद यंहा न आना ही ठीक रहता, कम से कम अपने ख्वाबों की दुनिया में ये तो मान पाता कि कंही किसी की मां मुजे बेटा मानती है ! पर खैर, यंहा ले आने को राजीव ने भी बढ़िया दाव डाला था, कहा कि ‘इस्सी बहाने मां से भी मिलना हो जाएगा !’ और बस फिर क्या था, निकल दिए राजीव के घर की ओर।

* * * * * *

रमज़ान के आखरी रोज़े के दिन हम राजीव के गांव पंहोचे थे। वक़्त तकरीबन शाम के पांच का हुआ था। इफ्तारी करने को अभी काफी वक़्त था। वैसे तो राजीव का गांव मैंने भी पहले देखा हुआ था, पर पिछले कुछ समय में गांव ने अच्छी तरक्की कर ली थी। बैलगाड़ी की जग़ह अब ओटो रिक्शाओं ने ले ली थी। उन्हीं में से एक में हो कर हम राजीव के घर पंहोचे थे। घर बहार से ही मध्यम वर्गीय मालूम पड़ता था। पर फिर भी राजीव ने भेजे पैसों से उसकी बीवी ने घर को काफ़ी अच्छे तरीके से संजोये रखा था। हमारे पँहोचते ही वो भागती हुई आंगन तक आ पंहोची। वो जिस तरह से आई थी तब लगा जैसे आते ही राजीव को लिपट पड़ेगी, पर शायद मेरी हाजरी का लिहाज कर रुक गई। हल्के से राजीव के हाथ में से बेग उठा ली, मेरी और जुक कर मुस्कुरते हुए प्रणाम कहा, और हमें अंदर की ओर ले गई।

‘मां, वो आ गए।’, अंदर खटिया पर लेटी बूढ़ी औरत की और देखते हुए उसने कहा। और मानों उन चंद शब्दों में कोई जादुई असर दिखाई हो वैसे वो बूढ़ी औरत खटिया में बैठ खड़ी हुई।

‘राजीव… तू आ गया राजीव !’ कहते हुए उसने किसी चीज़ को ढूंढ रही हो वैसे हाथ फैलाए। राजीव तेज़ी से जा कर उसकी बाहों में समा गया। वो राजीव के पूरे बदन पर चाव से हाथ फेरी रही, कभी उसे गालों पर तो कभी माथे पर चूमती रही और कहती रही, ‘कितने वक़्त के बाद आया है ! क्या तुजे हमारी फ़िक्र नहीं होती ? हमारी याद भी नहीं आती क्या ?’ राजीव बिना कुछ बोले उसकी मीठी सी फ़रीयाद सुनता रहा। थोड़ी देर बाद मेरा परिचय करवाते हुए बोला, ‘मां इस बार मैं अकेला नहीं आया हूं। फरहाद को भी साथ ले आया हूं। ये वही फरहाद है जो राजीव बनकर तुमसे बतियाता रहता था !’ राजीव की बात सुन उसकी बीवी हंस पडी। मैं माजी के पास गया और ‘क्या करना चाहिए’ ये समझ न आने पर ‘सलाम वालेकुम’ कह कर उनके पांव छुए। उसी प्यार से उन्होंने मेरे चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘खुदा तुम्हें सलामत रहे बेटा !’

उस क्षण…! उस क्षण मानों लगा कि माजी को गले से लगा लूं, और मां बिना बिताए सारे बरसों का हिसाब चुकता कर लूं ! पर मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी भीगी आंखे छुपाई और खड़ा हुआ। मैंने अपनी बेग ठीक की और उसी कमरे के कोने में रखने को सरका। इस दौरान राजीव अपने जूते निकालते हुए अपनी बीवी से बात कर रहा था। तभी भाभीजी ने राजीव से कहा, ‘पहले हाथ-पांव धो लीजिये, फिर फुरसत से बतियाएगा !’ और वो पूरी बात कहे उससे पहले ही राजीव बाथरूम की और चल दिया था। और जाते जाते मुजे भी पीछे आने की इशारत करता गया। मैंने भी बेग कोने में रखकर बाथरूम की और कदम बढ़ाए, और तभी मेरे जूतों की आहट सुन माजी ने रोकते हुए कहा, ‘बेटा, पहले जरा इधर तो आना।’ मैं सहज सा उनकी खटिया के पास बैठा। उन्होंने पास के टेबल पर पड़ी कटोरी उठाई और कहा, ‘तेरी पसंद की केसर वाली ख़िर बनाई है। चखकर बता तो ज़रा, कैसी बनी है ?’

‘मां, मैं फरहाद हूं।’, मैं पूरा बोल पाऊं उससे पहले ही उन्होंने चम्मच भर ख़िर मेरे मुंह में डाल दी ! क्या लिज्जत थी उस ख़िर में ! खुदा क़सम आज तक इतनी बढ़िया ख़िर फिर कभी नहीं खाई !

‘ये क्या किया मां ?’, बाथरूम से लौट आ रहे राजीव ने दूर से देख कर ही कहा, ‘इसके तो रोज़े चल रहे हैं !’ दूर से आ रही राजीव की आवाज मां को भी हकीकत से वाकिफ़ करवा गई। वो कुछ अपराध भाव से नीचे देखती रही। तभी मैंने उसकी हथेली को अपने दोनों हाथों के बीच दबाते हुए कहा, ‘कुछ नहीं हुआ। सब ठीक है !’

‘अरे ऐसे कैसे ?’, राजीव ने कहा, ‘आज तो तेरा आखरी रोज़ा था… टूट गया अब तो !’
ये सुन मां भी धीरे से बोली, ‘बेटा, मेरी वज़ह से तुम्हारा रोज़ा टुटा… गुनाह हो गया !’
अब मैं अपने आप को रोके नहीं रोक सकता था, मैंने उन्हें गले लगा दिया और कहा, ‘कहा ना अम्मी, कुछ गलत नहीं हुआ। मेरा रोज़ा टूटा नहीं, खुला है ! आज खुद अल्लाह ताल्ला ने मेरा रोज़ा खुलवाया है ! आपकी ख़िर ने तो मेरा रमज़ान सफल कर दिया !’

उस दिन मनभर कर अम्मी ने अपने हाथों से हमें ख़िर खिलवाई। और ईद के दिन तो वो खुद कहने लगी कि, ‘आज तो ख़िर में से राजीव को भी हिस्सा नहीं मिलेगा। क्योंकि आज सारी की सारी ख़िर मैंने सिर्फ फरहाद के लिए बनाई है !’ और उसी प्यार से उन्होंने अपने हाथों से ख़िर खिलाई और कहा, ‘ईद मुबारक हो फरहाद।’

– Mitra ❤

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