मैं तो नौ महीने फिर से सोना चाहता हूं
मैं अब कहा कुछ भी होना चाहता हूं
मैं तो नौ महीने फिर से सोना चाहता हूं
कर्मसताको जो भी करना है वो कर ही ले
पाप तो क्या पुण्यको भी धोना चाहता हूं
जहां कीसी भी गम या खुशीका फर्क न रहें
हास्यपराकाष्ठा स्वरूप मैं रोना चाहता हूं
शरीर मेरा बने उर्वरक और आत्मा बने बीज
मैं सत्य, प्रेम, करुणा जगमें बोना चाहता हूं
जिसका केंद्र सभीमें हो पर परीघ असीमित
ऐसे केंद्र बिंदु का मैं एक कोना चाहता हूं
-मितल खेताणी
Leave a Reply