एक सवाल…?
क्युं तूम्हारी मानसिकता उतनी पीछडी हूई हे?
क्युं तूम औरत को सन्मान नही दे पाते?
तूम्हारी नजर में औरत का चरित्र क्यां ..हे?
घुंघटओठे घर की दहेलीज ना पार करे,
घर में बेठी चूपचाप तूम्हारे सितम सहे..?
या तूम्हारी हा में हा मीलाये और कुछ ना बोले…
क्युं वो खूदका आसमां नही चून शकती..?
वो पंछी की तरह अपनी उडान नहीं उड शकती.?कली की तराह खीलकें आजाद हवा में सांस नही भर शकती..
पे बूलबूल बनके अपने सूर फेला नही शकती..
अपनी मरजी से जीनां उसका हक्क नही..?
औरत घर के साथ सब तो संभालती हे..
कभी फरियाद किए बिना सारी जिम्मेदारी हंसते हंसते निभाती हे..
फिर… क्युं ..
तूम्ह उन्हे बाज की तरह छपटते हो?
अपनी हवस में बच्ची से बूढी महिला को एक ही नजर सें देखते हो..
अपनी मां बेटी बहन या पत्नि के लिए भी यहीं सोचते हो…
घीन आती हे मुझे जब कोई बच्ची या लडकीं कीसी मर्द की हेवानियत का शिकार होती हे..
क्युं तूम्ह थोडा सन्मान , थोडी ईज्जत नही दे पाते..
क्युं भूल जाते हो..?
तूम्हे जन्म भी तो एक औरत ने हीं दीया हे..।
हा ! में एक औरत हूं.. मां बहन बेटी हू .. कीसीकी पत्न हूं ..
मूझे नाज हे अपने औरत होने पर…
तूम्हे अब अपनी मानसिकता बदलनी हीं होगी..
समजे… ! हां में ये मर्द जात से ही तो बतियां रही हूं।
“काजल”
किरण पियुष शाह
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