गीला मन…
युं ख्वाबो में आके ..
तरसायाना करो..
रोज तेरी यादो में भीगा ..
यें गीला तकीया कैसे छुपाऊ?
साथ ये गीला मन मेरा।
तेरे दीदार का प्यासा..
तेरी यादो को संजोके बैठा ,
जो कभी मानता ही नहीं की..
तुम मेरे होकरभी …कहां मेरे हो?
दूर पर्वत पें सांज ठलती हे..
अंधेरा घर भर देता हे।
पंजी घौंसलोमें लौट आते हे,
पर ,
नजरे आसमानमें गडी रहेती..
कहीं…
कोई यायावर पंजी …
रास्ता भूले उधर आ जाये..
कोई संदेश ही आ जाए।
कही बादलो में मनचाही छबी ..
काश दीख जाए..
पर एसा कहां होता है..?
वो झरझर बहेती सरिता ..
पिया मिलन को.. आतूर..
गांव शहेर पार कर समुंदरमे मिल जाती..
और उधर ..
रात ठलते ठलते.
धीरे धीरे अंधेरा ही बांहोमें जकड लेता हे।
और फिर रह जाता हे,
तन्हाई ओर गीला मन ..
मेरी यादो को .. साथ लीए हुए।
बिना सिलवट का बिस्तर ,गीला तकियां
खामोशी.. अंधेरा..
और में…
काजल
किरण पियुष शाह
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