माँ बहन, बेटी-पत्नी, न जाने तेरे है कितने नाम
इन सब के बीच, दबी मिलेंगी तू औरत गुमनाम.
बेटी बनकर पिता की इज्जतका तू बनी दर्पण,
पत्नी बनकर अपना सब कुछ कर दिया समर्पण
माँ रूपमे ढलकर अपना सुख चैन किया अर्पण
खुद अपनी तकलीफ़ो का तूने कर दिया तर्पण.
हर दिन नया जन्म तेरा, हर रोज नई परीक्षा साथ,
जहाँ सलवट भरे दिन गुजरते, वही हादसो भरी रात
गिरा अगर दुपट्टा सर से, घिरे वासनाओ के साँप
जुबान तेरी कभी जन्मी नहीं, बहते अश्को के जाम
उम्रके हर पड़ाव पर नीलाम हुई, तू औरत सरेआम.
इन सबके बीच पलभरमें सिर्फ हुई औरत बदनाम
सीता पांचाली, अहल्या बनकर हर वक्त बेजुबान
इन सब के बीच, दबी मिलेंगी तू औरत गुमनाम.
~ रेखा पटेल ‘विनोदिनी’
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