दो घड़ी ढहर जाओ अब भी निशा बाकी है
मेरे पैरो के तले वो अब भी जमी बाकी है
दिल को तसल्ली आहट से मिल जाती है
अब कही दो पल सुकून में जीना बाकी है
मेरे भीतर पलपता पौघा वो तेरी यादे है
महेक प्यार की खुशबू बिखेरना बाकी है
अगर तुम आओ तो थोड़ी देर ठहरना है
इन बुझती शमा में अब भी तेल बाकी है
मरके में मंज़िल को पा जाऊँगा मालूम है
कब्र तक देना हाथ अब भी जुनूँ बाकी है
ईन गीतों गज़लों में महोबत कहा मिलती है
वो तो इक सैलाब है डूबना अभी बाकी है
~ रेखा पटेल ‘विनोदिनी’
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