कौन लोग है यह सब, और कहां से आते है,
बच्चियों को बेचकर जो मोटा पैसा कमाते हैं,
बच्चियों को बेच कर…
करने को चाहें उनके पास काम हो यां नही,
उधारी का शाहीपन, वो सब को दिखाते है,
बच्चियों को बेच कर…
लोगो को जो आजकल अब बहुत भाते हैं,
वो लोग पैसो के दमपर रिस्तो को निभाते हैं,
बच्चियों को बेच कर…
क्या मतलब है उन्हें संस्कार, खानदानी से,
गाड़ी बंगला देखकर वो रिस्तेदार बनाते है,
बच्चियों को बेच कर…
बातें उनकी बड़ी बड़ी, सोच इतनी छोटी है,
पैसो की प्यास को बेटी के सहारे बुजाते है,
बच्चियों को बेच कर…
अच्छा, सच्चा अब कोई नही रह गया यहां,
पैसे भर कर वो अपनी जूठी लाज बचाते हैं,
बच्चियों को बेच कर…
आभासी सुख की आश में सच ठुकराते है,
भविष्य का समजोता वे नोटों से करवाते हैं,
बच्चियों को बेच कर…
रिस्ते नातों की अहमियत को भी ठुकराकर,
सुखी भविष्य की सौदेबाजी वे समझाते है,
बच्चियों को बेच कर…
जहां पैसो के दम पर बेटियां तक कुर्बान है,
खड़े होकर शाहूकार, वहीं खुद को बताते है,
बच्चियों को बेच कर…
अब समाज, सिस्टम और रिवाज धरे रहे है,
सब अच्छा सच्चा मोल भाव से समझाते हैं,
बच्चियों को बेच कर…
सुख और खुशियों की झूठी बात बनाकर,
पालन पोषन का खर्च भी वे निकलवाते है,
बच्चियों को बेच कर…
~ सुलतान सिंह ‘जीवन’
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