✒️ संपादक की कलम से | संविधान संशोधन पर विवाद: राजनीति बनाम ऐतिहासिक सच्चाई
भारत की राजनीति एक बार फिर एक संवेदनशील मुद्दे पर गर्म हो गई है—भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल शब्दों को लेकर। इस बार बहस की शुरुआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी दत्तात्रेय होसबोले के एक बयान से हुई, जिसमें उन्होंने 50 वर्ष पहले लगे आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” पर पुनर्विचार की आवश्यकता जताई।
इस बयान के बाद विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे संविधान पर हमला बताया, तो समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों ने इसे भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ षड्यंत्र करार दिया। लेकिन इस पूरे विवाद में एक प्रश्न सबसे अहम है—
क्या वाकई यह संविधान बदलने की कोशिश है, या फिर एक ऐतिहासिक सत्य का पुनरावलोकन?
🔍 42वां संशोधन: भारतीय संविधान का सबसे विवादास्पद परिवर्तन
सबसे पहले स्पष्ट कर दें कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” जैसे शब्द डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा बनाए गए मूल संविधान में नहीं थे। यह शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान, इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा किए गए 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़े गए।
मूल प्रस्तावना में लिखा था:
“हम भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए…”
1976 में संशोधन के बाद यह वाक्य बना:
“हम भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य…”
यह परिवर्तन ऐसे समय में हुआ जब देश में आपातकाल लागू था, प्रेस पर सेंसरशिप थी, विपक्ष के नेता जेल में थे, और संसद का कार्यकाल बिना चुनाव के बढ़ा दिया गया था।
📜 स्रोत:
⚖️ अंबेडकर का मूल दृष्टिकोण: प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” नहीं
संविधान निर्माण के समय, इन शब्दों को जोड़ने पर चर्चा अवश्य हुई थी। 15 नवंबर 1948 को संविधान सभा में प्रो. के.टी. शाह और एच.वी. कामत ने प्रस्ताव रखा था कि “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ा जाए।
लेकिन डॉ. अंबेडकर ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। उनका तर्क था:
“संविधान एक वैचारिक दस्तावेज नहीं, बल्कि प्रशासनिक ढांचा है। अगर हम इनमें वैचारिक शब्द जोड़ेंगे, तो यह संविधान की व्याख्या को सीमित कर देगा।”
📜 स्रोत:
इसलिए संविधान की मूल प्रस्तावना में यह शब्द नहीं रखे गए। यह एक सचेत और लोकतांत्रिक निर्णय था।
🚨 आपातकाल के दौरान जब लोकतंत्र को मोड़ा गया
25 जून 1975 को घोषित आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान में अनेक बदलाव किए, जिनमें सबसे अहम था 42वां संशोधन। इसके तहत न केवल प्रस्तावना में शब्द जोड़े गए, बल्कि न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित किया गया, केंद्र को अधिक अधिकार दिए गए, और प्रधानमंत्री की शक्तियों को लगभग असीमित बना दिया गया।
📜 स्रोत:
- ग्रैनविल ऑस्टिन, “Working a Democratic Constitution” | Oxford University Press
🔄 विपक्ष का विरोध: विचार या राजनीतिक अवसरवाद?
आज जब दत्तात्रेय होसबोले यह सवाल उठाते हैं कि क्या प्रस्तावना से उन आपातकालीन शब्दों को हटाने या पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है, तो उसे संविधान विरोधी ठहरा देना उचित नहीं।
कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा यह कहना कि “संविधान को खत्म किया जा रहा है”, तब असहज प्रतीत होता है जब यह ध्यान में रखा जाए कि सबसे बड़ा संवैधानिक बदलाव उन्हीं की पार्टी ने, आपातकाल में बिना चुनाव के, जनता की अनुमति के बिना किया था।
🧠 क्या हमें बहस से डरना चाहिए या सच्चाई से?
संविधान कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है जिसे संशोधित नहीं किया जा सकता। वह एक जीवित दस्तावेज है, जिसे समय के साथ पुनरावलोकित किया जाना आवश्यक है। संविधान की आत्मा बदलाव के खिलाफ नहीं है, वह अंधकार में किए गए बदलावों के खिलाफ है।
यदि “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्द संवैधानिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो उन्हें जनता और संसद के माध्यम से दोबारा वैधता दी जा सकती है। लेकिन यह चर्चा लोकतंत्र विरोधी कैसे हो सकती है?
✅ प्रमाणित तथ्य सारांश:
कथन | सच्चाई | स्रोत |
प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्द | ✅ 1976 में जोड़े गए | Legislative.gov.in |
आपातकाल के दौरान जोड़े गए | ✅ चुनी हुई सरकार के कार्यकाल के बाहर | [Working a Democratic Constitution] |
अंबेडकर ने इन शब्दों को अस्वीकार किया | ✅ 15 नवंबर 1948 को | CADIndia.clpr.org |
🧭 निष्कर्ष
भारतीय लोकतंत्र की रक्षा केवल राजनीतिक भाषणों से नहीं, बल्कि ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकार करने से होगी। यदि हम डॉ. अंबेडकर के संविधान को सच में मानते हैं, तो यह स्वीकारना होगा कि उसकी प्रस्तावना की आत्मा आपातकाल में बदली गई थी—संविधान सभा के नहीं, एक सत्ता के निर्णय से।
अब समय आ गया है कि संविधान की पवित्रता पर भाषण देने वाले दल और नेता अपने ही इतिहास को आइने में देखें। बात संविधान बचाने की नहीं, संविधान को समझने और सच कहने की है।
Source: Some of Sources Researched by ChatGPT and Article Proofreading done by AI
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