कया कहूँ कैसे कहूँ?
कुछ समज नही आता,
तुम्हारे बीन आधी अधूरी,
तुम से मीलकर मूक्कमल हुईंथी।
तुमसे बीछडकर खूद से कभी मीली नहिं,
ना वो सुबह ना वो शाम होती है,
समय थंमसा गया है,
जहां हम बीछडे थे,
आईना मुंह चीडाता है जब परछाई तुम्हारी नजर नहिं आती ।
काजल बिदिंया गजरा शिंगार नहिं सुहाता,
वो ईत्र की महेंक नहिं आती,
रातो मे तुम्हारी बांहों का तकिया नहिं होता…
तो नींद भी रुठी रहेती है,
शिंगार सजना संवरना नहिं सुहाता।
बातों बातों मे तुम्हारा जिक्र,
आंखे पथराई रहती है।
कया कहूू कैसे कहूँ?
काश ! पे उडनेवाले, हमे बांटने वाले ये समजे..
हम दो जिस्म एक जान है,
जान को जान से अलग नहिं करते।
कभी हमने उगली थामी थी तुम्हारी,
आज हाथ तुम थाम लो।
माली हम चमन के माली ही रहने दो..।
अलगाव बटवारा रास नहिं आती,
‘काजल’ शायद आज घर घर की यहि कहानी है।
“काजल”
किरण पियुष शाह
Leave a Reply