कितने गुमान से भाप ऊपर बढती जाती है
हदसे ज्यादा होते जमीं पर ठलती जाती है
भीतर अपने दरिया कितने राझ संजोता है
कीनारो पे उसकी ख्वाहिशें उछलती जाती हैं
गुमान हर कोई अपनी महोबत पे करता है
मुश्किलों में ही असलियत पहेचानी जाती है
खिलते फूलो पर तो भवरे मंडराते रहेते है
यौवन ढलते ही बाजारों से उतारी जाती है
यहाँ हर कोई अपनी झूठी मुस्कान बेचता है
ठोकरों से ज़िंदगी सबकुछ सिखाती जाती है
~ रेखा पटेल ‘विनोदिनी’
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