कितना पीछे छूट गया कुछ नया पाने की चाह में.
बहोत ज्यादा टूट गया कुछ जोड़ने की चाह में
जो आज तक खामोश रहा तनहाई भरी राह में
वो अपना पता दे गया फिर ना आनेकी चाह में.
अपना अश्क दिखाने खुद ही आईना बन गया
इन्सान तक मिट गया वो खुदा बनने की चाह में.
हर क़दम ढुंढा जिसे इस पार से उस पार तक
मंदिर मस्जिद तक गया उसे जानने की चाह में.
जिंदगी उसकी अजीब थी ख़ुशी के संग गम थी
अघूरे अरमाँ छोड़ गया दिलमें रहने की चाह में.
हम भी कहाँ कम थे ईस कलम उसके नाम की
नाम उनका लिख दिया यादें सँवारने की चाह में.
अब जब जी भर जाता है एक पन्ना जुड़ जाता है
हम भी मशहूर हो चले उसे जिंदा रखने की चाह में
~ रेखा पटेल ‘विनोदिनी’
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