राणा सांगा – मेवाड़ का अमर स्वाभिमान
सुनो ओ वीरों की धरती के सपूतो!
सुनो उस सिंह की गर्जना…
जिसकी एक आँख गई थी – पर दृष्टि हिमालय सी अडिग थी!
जिसकी एक भुजा कट चुकी थी – पर तलवार अब भी दुश्मन के सीने भेद रही थी!
हाँ!
मैं हूँ राणा सांगा!
मेवाड़ की मिट्टी का वो पुत्र —
जिसने अपने लहू से राजपूताना की अखंडता लिखी थी!
कटे हुए अंगों से मैंने रणभूमि को सजाया था!
लड़खड़ाते पाँव से भी मैं सिंह-गर्जना कर दुश्मन को थर्राया था!
मेरे लिए शासन नहीं…
माँ की मिट्टी ही मेरा साम्राज्य थी!
मेरी तलवार — न्याय का मान,
मेरा लहू — स्वाभिमान का प्रमाण!!
लोदी आया… खिलजी आया…
शाह और बाबर ने भी मोहरें बिछाईं,
पर हर बार…
मेवाड़ से टकराकर उनकी तलवारें मोम बन गईं!
हर बार सांगा की हुंकार ने, उनके अंधकार को चीर दिया!!
कहते हो आज मंचों से —
कि सांगा ‘गद्दार’ था?
तो पूछो ख़ुद से…
जब दिल्ली काँप रही थी,
जब माँ भारती की चूड़ियाँ टूटी थीं,
तब तुम्हारे रक्त में ज्वाला किसने भरी थी?
मैं था…
जिसने लहू से इतिहास की रचना की थी!
मैं था…
जिसने विश्वासघात से नहीं — रणभूमि से सीखा था!!
खानवा की भूमि… जहाँ मैं गिरा नहीं…
मुझे गिराया गया!
पीठ में छुरा खाकर भी,
मैं झुका नहीं —
माँ की मिट्टी पर गिरा…
मगर उसका ताज संभाले रखा!
इतिहास गवाह है —
वीरता सत्ता से नहीं, बलिदान से बनती है…
और मैंने अपने हर घाव से
मेवाड़ को अमरत्व सौंपा है!
तो सुन लो भारतवर्ष!
जब भी कोई रणबाँकुरा उठे,
अपने प्राणों से स्वाभिमान बचाने को…
तो याद रखना —
उसके पीछे कहीं न कहीं
राणा सांगा की छाया चलती है!
– सुलतान सिंह ‘जीवन’ | ९ अप्रैल, २०२५
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