दुश्मन को भी हम अपने सीने से लगाते रहे,
शायद मिल जाए ज़िंदगी यहीं सोचते रहे.
बढ़ाऐ रख्खा हाथ अपना तो लोग समझे,
माँग कर ही हम अपना दरगुजर करते रहे.
अपनों से क्या फ़रियाद यही सोच रखीं
भूलकर हर जख्म जज्बातों में डूबते रहे.
ना पास आये, ना पलभर ख़ुदसे दूर हुए,
हम अपना ही पता यूँ औरोंसे पूछते रहे.
जानते हैं तूफानों का कोई भी घरम नहीं,
सयाने हम, हवाओं का रुख समझते रहे.
रेखा पटेल
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