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महाभारत : द्रौपदी स्वयंवर


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महाभारत : द्रौपदी स्वयंवर


महाभारत कई पर्वो और प्रसंगों का साक्ष्य रहा हे। कुछ इसी प्रकार इसका प्रवाह भी इसी तरह बदलता संभलता रहा हे। लाक्षागृह वाले प्रसंग के बाद जो नया अध्याय पांडवो के जीवन में शुरू होने वाला था, वह था द्रौपदी से अर्जुन का विवाह। क्योकि जिस समय यह स्वयंवर आयोजित हुआ पांडव वन वन भटक कर सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। और अगर देखा जाये तो महाभारत की कथा एक प्रकार से सम्पूर्णत द्रौपदी पर ही आधारित कथा मानी जाती हे। वेसे यह भी स्पष्ट रूप से सत्य ही तो हे, की अगर प्राचीन काल में द्रौपदी न होती तो शायद महाभारत की कोई कथा भी आज अस्तित्व में न होती। लेकिन शायद इतिहास में इस कथा का घटना ही नियति के अधीन था, और नियति को भला कोन टाल भी शका हे।

द्रौपदी के सवयंवर तक जाने से पहेले कुछ बाते द्रौपदी के बारे में भी एक बार हम दोहरा ले। वास्तव में द्रौपदी का जन्म यज्ञ कुंड में यज्ञ के फल स्वरूप हुआ था। यज्ञकुंड से जन्म लेने के कारण ही द्रौपदी का दूसरा नाम याज्ञशैनी भी माना जाता हे। कृष्णा तो वो नाम था जिस नाम से उन्हें सिर्फ कृष्ण के कारण पुकारा जाता था, और पांचाल राज्य की कुवरी होने के कारण उन्हें पांचाली भी कहा जाता था। उसी तरह द्रुपद नंदनी द्रौपदी पिता की क्रोधाग्नि के फलस्वरूप किये गए यज्ञ से जन्म लेने के कारण जन्म से ही उग्र स्वभाव की स्वामिनी थी। बढ़ते दिनों द्रौपदी जब युवावस्था तक पहोची तब जवाबदेही और फर्ज के कारण उनका गुस्सा कुछ हद तक शांत हुआ। और बढती उम्र ले साथ पिता को अब पुत्री के विवाह की चिंता भी सताने लगी थी। लेकिन फिर भी वे अपनी पुत्री द्रौपदी के लिए भारतवर्ष का सबसे योग्य वर पसंद करना चाहते थे। शायद इसी चाह के रहते द्रुपद ने कृष्ण की सलाह अनुसार स्वयंवर में कठिन परीक्षा का सहारा लिया। क्योकि सिर्फ कृष्ण ही ये जानते थे की यह परीक्षा अर्जुन के आलावा और कोई भी पार नही कर पायेगा। (सिवाय कर्ण के, अगर उन्हें वह अवसर प्रदान कर दिया जाता।)

देखते ही देखते वह दिन भी आ गया। पांचाल राज्य में स्वयंवर की तैयारिया हो चुकी थी। कृष्ण द्वारा निर्देशित परीक्षा की तैयारिया भी बिना चुक कर ली गई थी। स्वयंवर के लिए भारत वर्ष के सभी रजा महाराजा, रथी-महारथीओ को निमंत्रण भेजा गया था। एक सन्देश हस्तिनापुर भी भेजा गया था। एक नजर से देखा जाये तो यह स्वयंवर ही महाभारत की वास्तविक शुरुआत कहा जा शकता हे जहा से द्रौपदी और पांड्वो के जीवन मे एक नया अध्याय शुरू होना था। आखिर कार स्वयंवर सभा को निर्धारित किया गया और सभी महेमानो के स्वागत के साथ स्वयंवर में आने का निमंत्रण पहोचाया गया।

निमंत्रण द्वारा कई राज्यों के राजा द्रौपदी को पाने की आस लिए पांचाल आ पहोचे थे। जब स्वयंवर सभा शुरू हुई तो सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमारो को विवाह की इच्छा लिए उत्साहित देखा जा शकता था। वही एक ओर श्री कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम तथा गणमान्य यदुवंशियों के साथ सभा की दूसरी छोर पर विराजमान थे। कुछ देर वहाँ बेठने के बाद वह जानबूझ कर ब्राह्मणों की पंक्ति में जा कर बैठ गये। जहा पहेले से कुछ ब्राह्मण अपने गुरु के साथ बेठे हुए थे। कृष्ण उन्हें जानते थे, और वे कृष्ण को जानते थे।

सभा में द्रौपदी के आगमन की घोषणा हुई और कुछ ही देर के बाद पांचाल कुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उस सभा में आयी। सभा की चर्चा द्रौपदी की उपस्थति मात्र से मौन में परिवर्तित हो गई। मौन को देखा और तभी धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा, ’हे विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनों, आप सब का पांचाल राज्य में स्वागत हे। लेकिन स्वयंवर शुरू होने से पहेले स्वयंवर की कुछ आवश्यक बाते बता दू। इस मण्डप में बने उस स्तम्भ के ऊपर एक घूमता हुआ यंत्र लगाया गया हे। उस यंत्र में एक मछली का आकार अंकित किया गया हे, और वह मछली यंत्र के बिंदु पर निरंतर घूम रही हे। आपको स्तम्भ के बिलकुल नीचे रखे हुये तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखना हे। और उसी प्रतिबिंब को देखते हुये बाण चला कर सिर्फ उस मछली की आँख को ही भेदना है। और हां स्वयंवर की शर्त के आधार पर उस मछली की आँख में सफल निशाना लगाने वाले व्यक्ति से ही मेरी बहन द्रौपदी का विवाह होगा। कुछ ही देर में जब ये निर्देश सबने सुना तो आपस में कुछ वक्त तक कानाफूसी हुई और फिर वह शोर थम गया। क्योकि द्रौपदी की अवर्णनीय सुंदरता के सामने यह लक्ष्य आये सभी राजाओ को क्षुल्लक ही लगा। जब सब अतिथि द्वारा इसका स्वीकार हुआ तब सभा शांत हुई। आखिर कार प्रतियोगिता प्रारंभ करने का संकेत दिया गया। इसीके साथ अब एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का निरर्थक प्रयास किया, किन्तु धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढाने तक में किसी को सफलता हाथ न लगी। एक के बाद एक राजा महाराजा आते गए और फिर वे तुरंत क्रांतिहीन होकर अपने स्थान पर वापिस लौट जाते। इन असफल लोगों में जरासंघ, शल्य, शिशुपाल तथा दुर्योधन दुशासन आदि सभी कौरव भी सम्मिलित थे। द्रौपदी अपने स्थान पर बेठे बेठे यह सब देख रही थी, लेकिन कृष्ण के सभा में होने से वह निश्चिंत प्रतीत हो रही थी।

एक के बाद सब असफल होते रहे। सारे कौरवों और अपने मित्र दुर्योधन के असफल होने पर गुस्से में आकर अंग प्रदेश के राजा कर्ण ने ही मछली को निशाना बनाने के लिये अपना आसन छोड़ा। कुछ ही क्षण लगे उन्हें धनुष उठाने ओर प्रत्यंचा चढाने में, ये देख दुर्योधन आनंदित हो उठा। श्री कृष्ण और शायद दुर्योधन भी इस बात को अच्छे से जानते थे की कर्ण के लिए यह करना सहज होगा। लेकिन नियति कुछ और चाहती थी, इसी लिए कृष्ण मौन रहे और दुर्योधन ने कर्ण का समर्थन किया। सभा अपनी पराजय के कारण कुछ कहने सुनने के हाल में नही थी। किन्तु उन्हें देख कर द्रौपदी बोल उठीं की, यह अंग राज कर्ण एक सूतपुत्र है इसलिये मैं इनका वरण नहीं कर सकती। सभा मंडप फिर से मानो जिवंत हो गया था। द्रौपदी के वचनों को सुन कर कर्ण ने लज्जित हो कर धनुष बाण रख दिया। लेकिन सभा मंडप ने चर्चा को और बढा दिया। एक और सबने स्वयंवर को ही असफल कहा, तो किसीने कर्ण पर हसना उचित समजा। कौरव कर्ण के समर्थन में था लेकिन वो विरोध के बावजूद कुछ नही कर पाए। क्योकि स्वयंवर में द्रौपदी आपना वर चुनने के लिए स्वतंत्र थी, और कर्ण का अस्वीकार स्वयं द्रौपदी का ही निर्णय था। काफी देर तक यह संवाद सभा में गूंजता रहा की प्रतियोगिता कोई जित नही पाया। कर्ण को द्रौपदी ने अस्वीकार दिया, तो फिर द्रौपदी विवाह करेगी किस से…? लेकिन सभा के दुसरे छोर पर वह कृष्ण ही थे जो अब तक शांत बेठे थे। शायद उनका मौन भविष्य और नियति दोनों से परिचित था, वे जानते थे की आगे क्या होना था और कब…

कुछ समय में फिर सभा शांत हो गई। कुछ देर की चर्चो के बाद ब्राह्मण पंक्ति की और सभा की द्रष्टि थम गई। कृष्ण द्रौपदी को शायद उस और इशारा करते हुए ही कुछ निर्देशित कर रहे थे। लेकिन कुछ देर के पश्चात् ब्राह्मणों की पंक्ति से उठ कर अर्जुन ने (उस वक्त वह ब्राह्मण वेश में थे और उन्हें कोई नही जानता था। क्योकि लाक्षागृह के बाद सब उन्हे मरा हुआ मानने लगे थे।) निशाना लगाने के लिये धनुष उठा लिया। एक ब्राह्मण को राजकुमारी के स्वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, किन्तु ब्राह्मणों के क्षत्रियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कारण लंबी चर्चा के बावजूद उन्हें कोई रोक न सका। अर्जुन ने कर्ण के सिवाय किसी योध्धा से न उठने वाला धनुष किसी खिलोने की भाति उठा लिया। और आगे बढ़ कर तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये कुछ ही क्षणों में मछली की आँख को भेद दिया। द्रौपदी ब्राह्मण पुत्र के इस करतब से अचंबित थी। सभा में उपस्थित सभी वीर इस करतब से आश्चर्य में थे, लेकिन कृष्ण आँखों से कुछ और ही कह रहे थे। सभा में उपस्थित द्रौपदी उनका मर्म समज चुकी थी, इसलिए द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दि। एक ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त क्षत्रिय राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित हो कर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन की सहायता के लिये शेष पाण्डव भी आगे आ गये और पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने की परिश्थिति का निर्माण होने लगा। तब कृष्ण ही कुछ कर शकते थे, इसलिये उन्होंने बीच बचाव करके युद्ध को शान्त करा दिया। दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया था कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही होगा और उसका साथ देने वाले शेष पाण्डव रहे होंगे।

दुर्योधन का संदेह एक तरह से उचित भी था। वारणावत के लाक्षागृह से पाण्डवों के बच निकलने पर उसे अत्यन्त आश्चर्य होने लगा। पांचाल से पुत्री ने भी ब्राह्मण वधु के वेश में ही प्रस्थान किया। पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर वहाँ पहुँचे जहाँ वे अपनी माता कुन्ती के साथ निवास कर रहे थे। माता को चौकाने का सोच द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा, माते आज हम लोग आपके लिये एक अद्भुत् भिक्षा ले कर आये हैं। शायद यह भी नियति का ही कोई विधान था, अन्यथा ऐसा उपहास अर्जुन केसे सोच पाता। लेकिन अर्जुन के उपहास से अंजान कुन्ती ने भीतर से ही कह दिया की, ‘जो कुछ भी लाये हो उसे, तुम लोग आपस में मिल-बाँट कर उसका उपभोग कर लो।‘ बिना देखे कहे गए इस वचन ने द्रौपदी को पांच पति में बटने को नियति बना दिया। क्योकि माँ का वचन भंग धर्म के पक्ष में नही था। लेकिन बाद में कुंती को यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुन्ती को अपने वचन पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये कुन्ती ने पाँचों पाण्डवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। (वेसे तो पांच पति मिलना भी द्रौपदी के पिछले जन्मो की प्रसिध्दी और वरदान स्वरूप था। जो उसने महादेव से माँगा था।) पाण्डवों के बिच द्रौपदी को ले कर चल रहे वार्तालाप के कुछ क्षण पश्चात् उनके पीछे-पीछे कृष्ण भी वहाँ आ पहुँचे। कृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणस्पर्श कर के आशीर्वाद प्राप्त किए और सभी पाण्डवों से गले मिले। द्रौपदी को अपने पिछले जन्म के कर्मो का फल समजाते हुए इसे स्वीकार करना योग्य जताया।

कुछ देर की बातचीत और औपचारिकताएँ पूर्ण होने के पश्चात् युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा की, हे द्वारिकाधीश आपने हमारे इस अज्ञातवास में हमें पहचान कैसे लिया? तब कृष्ण ने बहोत सरल उत्तर दिया, भीम और अर्जुन के पराक्रम को देखने के पश्चात् भला मैं आप लोगों को कैसे न पहचानता। कुछ समय बातचीत और सभी से भेंट मुलाकात करके कृष्ण वहाँ से सीधे अपनी नगरी द्वारिका चले गये।

पाँचों भाइ ने भिक्षा मांगकर कुछ भोजन सामग्री एकत्रित कि और उसे लाकर माता कुन्ती के सामने रख दिया। कुन्ती ने द्रौपदी से कहा की, देवि इस भिक्षा से पहले देवताओं के अंश निकालो। फिर ब्राह्मणों को भिक्षा दो। तत्पश्चात् आश्रितों का अंश अलग कर दो। उसके बाद जो शेष भोजन बचे उसका आधा भाग भीम को और शेष आधा भाग हम सभी को भोजन के लिये परोसो। सासु के कहे अनुसार ही पतिव्रता द्रौपदी ने उनके आदेश का पालन किया। भोजन के पश्चात् कुशासन पर मृगचर्म बिछा कर वे सो गये। द्रौपदी माता के पैरों की ओर सोई।

द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ साथ द्रुपद, धृष्तद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो चूका था कि वे कोई सामान्य ब्राह्मण नही लेकिन ब्राह्मण रूप में पाण्डव ही थे। उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को भेज कर उन्हें तुरंत अपने राजप्रासाद में बुलवा लिया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले उन्हें राजकोष दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। लेकिन जब उन्हें शस्त्रागार में ले जाया गया तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत अधिक रुचि दिखाई और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को यह विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मण के रूप में सच्चे योद्धा ही हैं।

द्रुपद ने युधिष्ठिर से पूछा की, हे आर्य आपके पराक्रम को देख कर मुझे यह विश्वास हो गया है कि आप लोग सामान्य ब्राह्मण नहीं हैं। कृपा करके आप मुझे अपना सही परिचय दीजिये। तब जाकर युधिष्ठिर ने कहा, राजन् आपका कथन अक्षरस सत्य है। हम वास्तव में ब्राह्मण न होकर पाण्डु-पुत्र पाण्डव हैं। मैं युधिष्ठिर हूँ और ये मेरे भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव हैं। हमारी माता कुन्ती आपकी पुत्री द्रौपदी के साथ आपके महल में हैं। युधिष्ठिर की यह बात सुन कर द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले की, आज भगवान ने मेरी सुन ली। मैं भी यही चाहता था कि मेरी पुत्री का विवाह महाराज पाण्डु के पराक्रमी पुत्र अर्जुन के साथ ही हो। मैं आज ही अर्जुन और द्रौपदी के विधिवत विवाह का प्रबन्ध करता हूँ। इस पर कुछ क्षण मौन रहकर युधिष्ठिर ने कहा, राजन् द्रौपदी का विवाह तो हम पाँचों भाइयों के साथ होना है। यह सुन कर द्रुपद आश्चर्यचकित हो गये और कहने लगे की, यह भला कैसे सम्भव हो शकता है? एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होती हे यह तो अवश्य ही सुना हैं, किन्तु एक स्त्री के पाँच पति हों ऐसा तो न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है।

युधिष्ठिर ने द्रुपद को समजाते स्वर में कहा, राजन् न तो मैं कभी मिथ्या भाषण करता हूँ और नही कोई कार्य धर्म या शास्त्र के विरुद्ध करता हूँ। हमारी माता ने अनजाने ही सही लेकिन हम सभी भाइयों को द्रौपदी का उपभोग करने का आदेश दिया है, और मैं माता की आज्ञा की अवहेलना कदापि नहीं कर सकता। उनका वार्तालाप चल रहा था उसी समय वहाँ पर वेदव्यास जी पधारे और उन्होंने द्रुपद को द्रौपदी के पूर्व जन्म में तपस्या से प्रसन्न हो कर भगवन शंकर के द्वारा पाँच पराक्रमी पति प्राप्त करने के वर देने की बात बताई। वह पांच पराक्रम एक पुरुष में होना संभव नही था इस लिए नियति ने यह मार्ग चुना हे। वेदव्यास जी के वचनों को सुन कर द्रुपद का सन्देह तुरंत समाप्त हो गया और उन्होंने अपनी पुत्री द्रौपदी का पाणिग्रहण संस्कार पाँचों पाण्डवों के साथ बड़े धूमधाम के साथ करवाया। इस विवाह में विशेष बात यह हुई कि देवर्षि नारद ने स्वयं पधार कर द्रौपदी को प्रतिदिन कन्यारूप हो जाने का आशीर्वाद दिया।

पाण्डवों के जीवित होने तथा द्रौपदी के साथ विवाह होने की बात तेजी से सभी ओर पुरे भारतवर्ष में फैल गई। हस्तिनापुर में इस समाचार के मिलने पर दुर्योधन और उसके सहयोगियों के दुःख का पार न रहा। क्योकि वे किसी भी मूल्य पर पाण्डवों को उनका राज्य लौटाना नहीं चाहते थे। किन्तु भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के द्वारा धृतराष्ट्र को समझाने तथा दबाव डालने के कारण उन्हें पाण्डवों को राज्य का आधा हिस्सा देने के लिये विवश होना पड़ रहा था। विदुर पाण्डवों को बुला लाये, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विकर्ण, चित्रसेन आदि सभी ने उनकी अगवानी की और राज्य का खाण्डव वन नामक हिस्सा उन्हें दे दिया गया। पाण्डवों ने उस खाण्डव वन में एक नगरी की स्थापना करके उसका नाम इन्द्रप्रस्थ रखा तथा इन्द्रप्रस्थ को राजधानी बना कर राज करने लगे। युधिष्ठिर की लोकप्रियता के कारण कौरवों के राज्य के अधिकांश प्रजाजन पाण्डवों के राज्य में आकर बस गये।

~ सुलतान सिंह ‘जीवन’

( Note :- इस विषय को पौराणिक तथ्यों और सुनी कहानियो तथा इंटरनेट और अन्य खोजबीन से संपादित माहिती के आधार पर लिखा गया है। और पौराणिक तथ्य के लेखन नहीं सिर्फ संपादन ही हो पाते हे। इसलिए इस संपादन में अगर कोई क्षति दिखे तो आप आधार के साथ एडमिन से सपर्क कर शकते ।)

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